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साहित्य में लगभग अलभ्य-से हैं। तीर्थंकर बालक को स्नान के लिए जब सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं उस समय के बालक के कपोल पर पड़ने वाले बिम्ब का जो वर्णन है, वह अलौकिक-सा है और यह श्रृंगार, वात्सल्य एवं शान्त का अद्भुत नमूना है और इसकी मोहकता ऐसी चमत्कार पूर्ण है, जो न केवल श्रृंगार में बन सकती है, न वत्सल भाव में, न भक्ति में। कई बार इस प्रकार के वर्णनों को पढ़नेपर लगता हैं कि हमें साहित्यशास्त्र में कुछ-और मानक बनाने पड़ेगें। आप भक्तिकालीन जैन साहित्य को देखें, तो ऐसी बहुत सी पदावली मिलेगी, जो न सगुण भक्ति की है, न निर्गुण भक्ति की है, पर भक्तिकाल की है। ऐसी पदावली के कुछ नमूने हम आध्यात्मिक पदावली से पा सकते हैं। इस जैन आध्यात्मिक पदावली का जो अध्यात्म रस है या भक्तिरस है, वह अद्भुत है और इसके नमूने हमें मध्यकाल से अर्थात् अपभ्रंश से बड़े स्पष्ट रूप में मिलने लगते हैं, जिनकी क्रमिक शृंखला हमें उत्तरकाल में हिन्दी की आध्यात्मिक पदावली के आधुनिक काल के पूर्वार्द्ध तक मिलती है और यह श्रृंखला ऐसी अद्भुत है जो भक्ति रसमय भी है पर भक्तिकाल की भक्ति-रस-प्रधान अन्य काव्यधारा से भिन्न भी है।
जैन साहित्य की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि उसने व्यक्ति को संस्कारित करने का काम प्रमुख रूप से किया है। यहाँ सहितस्य के भाव की प्रधानता उस रूप में स्वीकृत नहीं है, जैसी कुछ साहित्यशास्त्री स्वीकारते हैं। जैन यह मानते हैं कि व्यक्ति विशेष जब साहित्य के सम्पर्क में आता है, तो वह और उसका जीवन साहित्य के प्रभाव से स्वयं संस्कारित होता चलता है। और जब व्यक्ति संस्कारित होता चलेगा, तो वह अपने-आप दूसरे संस्कारित व्यक्ति से जुड़ेगा ही। इसलिए जैन, साहित्य-चिन्तन यह मानता है कि साहित्य से व्यक्ति का संस्कार होता है, व्यक्ति के संस्कार से समाज का संस्कार होता है और इसीलिए व्यक्ति के नियमित संस्कार के निर्माण के लिए ही स्वाध्याय की बात जैन व्यक्ति- विशेष के संस्कार में डाली गयी है और यह बात केवल गृहस्थों तक ही सीमित रखी गयी है, ऐसा तथ्य नहीं है बल्कि कथ्य तो यह है कि स्वाध्याय के पथ पर ही मुक्ति मिलती है और जिसका पथिक दोनों को होना होता है गृहस्थ को भी और साधु को भी।
कुल मिलाकर कथ्य यह है कि जैन साहित्य की कुछ ऐसी साहित्यिक विशेषताएँ है जो उसकी जैनेतर साहित्य से भिन्नता वाली पहचान को गढ़ती हैं और इस दृष्टि से जैन साहित्य का अलग से आलोडन करने की जरूरत है।
जैन साहित्य :: 765
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