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वास्तु
डॉ. राजेन्द्र जैन
जैन मान्यतानुसार वास्तु
वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वस्' धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, निवास की भूमि । "प्रकृति और मानव में सही सम्बन्ध स्थापित करने की स्थापत्य-कला का नाम वास्तु है" वास्तुकला के सिद्धान्त प्राकृतिक परिस्थितियों एवं भौगोलिक स्थिति के अनुसार निर्मित हुए हैं । वास्तु एक व्यवस्था है, जो सूर्य की किरणों, चुम्बकीय तरंगों एवं गुरुत्वीय आकर्षण के अनुसार कार्य करती है। वास्तु भूमि
और भवन से जुड़ा एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें वातावरण में व्याप्त ऊर्जाओं के समुचित उपयोग द्वारा सुखद व स्वस्थ जीवन के लिए विस्तृत व्याख्या मिलती है ।
समूची सृष्टि ऊर्जा के संवहन-चक्र से चलती है, यहाँ तक कि मानव का शरीर भी ऊर्जा के वशीभूत है। इसी प्रकार जमीन, बँगले, फसलें, कारखाने, विद्या केन्द्र, औद्योगिक प्रतिष्ठान पर, उस जमीन की ऊर्जा-संवहन का सुख-कारक या दुःखकारक प्रभाव पड़ता है। इन ऊर्जाओं का परीक्षण एवं दिशागत ऊर्जा के ज्ञान का नाम है वास्तु और इस शिल्पकला के शिल्पी को "वास्तुकार" का नाम दिया गया है।
जब हम एक चुम्बक को पर्यावरण में घुमाते हैं, तो उसमें विद्युत् तरंगें पैदा होती हैं, ठीक इसी प्रकार पृथ्वी भी चुम्बक प्रतीक है, चुम्बक घुमाने पर पर्यावरण में चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित होता है, जो कि मानव शरीर पर सुखकारक व दुखकारक असर डालता है । प्राकृतिक ऊर्जाएँ गृहों की गति द्वारा प्राप्त होती हैं । ये ऊर्जाएँ दो प्रकार की होती
1. ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Cosmic Energy) 2. भूगर्भीय ऊर्जा (Geopathic Energy) प्रत्येक गृह का अपना ऊर्जा-पुंज होता है, इसका सीधा प्रभाव मानव
जीवन पर पड़ता है। भूगर्भ में अनेक गैस, ठोस, द्रव खनिजों का भण्डार है। __ जीवन पर पड़ता है। भूगर्भ में अनेक गैस, ठोस, द्रव खनिजों का भण्डार है। जिनमें निर्मित ऊर्जा चट्टानों के बीच की दरारों से एवं जमीन के अन्दर बहने वाली
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