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मन्दिर, बाजार, नाटकगृह इत्यादि में शुभ - अशुभ भाव होते रहते हैं, अर्थात् प्रतिकूल गृहों में भी शुभभाव नहीं हो पाते, निरन्तर कलह, विवाद, विषाद आदि के परिणाम होते हैं, जो कर्मों के संक्रमण के कारण बनते हैं । इससे गृहों का निर्माण वास्तुशास्त्रानुकूल होना चाहिए। जो मन्दिर वास्तुशास्त्रानुकूल नहीं बने होते हैं, उनमें पूजादि करने पर मन स्थिर नहीं हो पाता, पदाधिकारी कलह करते रहते हैं ।
जिनमन्दिर और गृह की शाश्वत अनादि परम्परा में भरत, ऐरावत क्षेत्र की उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल की परिवर्तनीय अवस्थाओं में भी गृह और मन्दिर की अक्षुण्ण परम्परा रही है। जैनागम में जहाँ मन्दिर और गृह के वास्तु का उल्लेख है, वहीं गृहस्थ एवं मुनियों के अन्त - समय में सल्लेखना, समाधि और शव - विसर्जन हेतु वसतिका, संस्तर, एवं निषीधिका के वास्तु का भी कथन है। इनके निर्माण का मानोन्मान अकृत्रिम चैत्यालय एवं विदेह क्षेत्रादि की शाश्वत कर्मभूमियों में गृहादिकों के मान को प्रमुख रखा गया है । वास्तुशास्त्र के प्रतिकूल निर्माणादि करने के विपरीत परिणामों का भी जैनागम में उल्लेख है। भरतक्षेत्र की परिवर्तनीय कर्मभूमि के प्रारम्भ में कुलकरों के मार्गदर्शन में गृहादिकों का निर्माण होता है । इस कर्मभूमि के प्रारम्भ में कुलकरों एवं प्रथम तीर्थंकर ने भी गृह, मन्दिर आदि की संरचना, अवधिज्ञान के द्वारा विदेहक्षेत्र आदि की व्यवस्था के अनुसार निर्देश दिये थे एवं वास्तु, ज्योतिष्, कला, शिल्प, नृत्य, गीत, गणितशास्त्र आदि लोकोपकारी विद्याओं का उपदेश दिया था । ये सब जैनागम द्वादशांग के अंग हैं । इनके अनुसार ही कार्य करना अर्थात् वास्तुशास्त्रानुसार ही गृह - मन्दिर आदि का निर्माण करना श्रेयस्कर है। वास्तु-विद्या लोकोपकारी विद्या है, इसका अपना महत्त्व है । अनेक आचार्यों ने वास्तुविद्या के उल्लंघन न करने का निर्देश दिया है।
सन्दर्भ
1. दृषदिष्टका काष्टादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतराग प्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृदय् । —बोधपाहुड टीका 8, 76, 13
2. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग 2 पृ. 300 क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 1990 3. तिलोयपण्णत्ति सत्तमो महाहियारो गाथा 114 पृष्ठ 269 श्री यतिवृषभाचार्य टीका 105 आर्यिका
विशुद्धमति माताजी प्रकाशक - प्रकाशन विभाग श्रीभारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा 1984 4. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृष्ठ 303, 304
5. त्रिलोकसार, नरतिर्यग्लोकाधिकार, पृष्ठ 749 श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, व्याख्याकार
श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव, हिन्दीटीका 105 आर्यिका विशुद्धमति माताजी प्रकाशक - साहित्य भारती प्रकाशन गन्नौर सोनीपत हरियाणा
6. आदिपुराण, सर्ग 12, पृष्ठ 264, आचार्यजिनसेन, सम्पादक, अनुवादक - पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, 1993, चतुर्थ संस्करण
7. आदिपुराण (आचार्य जिनसेन), सर्ग 12, पृष्ठ 255
8. आदिपुराण (आचार्य जिनसेन), सर्ग 16, पृष्ठ 359 722 :: जैनधर्म परिचय
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