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जिनमन्दिर न हों, तो उनसे होने वाले सत्कार्य नहीं हो सकते हैं अर्थात् जिनमन्दिररहित ग्राम में श्रावक को नहीं रहना चाहिए। आचार्यों ने श्रावकों को जिनमन्दिर बनवाने का निर्देश दिया है। जिनमन्दिर बनवाने से होने वाले पुण्य-लाभ के बारे में उल्लेख है कि जो मनुष्य धनिया पत्र के बराबर जिनभवन और सरसों बराबर जिन प्रतिमा बनवाता है, वह तीर्थंकर पद प्राप्त करने के योग्य पुण्य करता है और जिन्होंने विशाल जिनभवन बनवाये उनके पुण्य का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है! इस कलिकाल में जिनमन्दिर, मुनिजनों का अवस्थान और दान यही धर्म है। इन तीनों का मूलकारण श्रावक है। मोक्षमार्ग एवं आत्म कल्याण हेतु श्रावक को प्रतिदिन छह आवश्यक करने को कहा है। जिनमें पूजा प्रथम आवश्यक है। पूजा के लिए जिनमन्दिर अत्यन्त आवश्यक है।
वसतिका
गृहस्थ को अपना अन्त समय जानकर अपने घर या जिनालय में सल्लेखना धारण करने का निर्देश है। 1अ उसके लिए स्थान के शुभाशुभ का जैनागम में विस्तृत वर्णन है। जो स्थान वृक्ष-पत्र-रहित हों, तथा जहाँ कण्टक भरे न हों, वज्रपात न हुआ हो, सूखे वृक्ष न हों, कटुक-रस वाले न हों, दावानल से जल न गये हों, रुद्रदेव का मन्दिर, पत्थरों और ईंटों का ढेर न हो; तृण, काष्ठ और पत्रों से भरा स्थान, श्मशान, टूटे पात्र, खण्डहर चामुण्डा आदि रौद्र देवों के स्थान नीचजनों का स्थान एवं अन्य प्रकार से अप्रशस्त न हों। ऐसे स्थानों पर क्षपक को निराकुलता नहीं होती है। अर्हन्त या सिद्धों का मन्दिर, समुद्र के समीप, कमलों के सरोवर के निकट, जहाँ दूध वाले वृक्ष हों, पुष्प फलों से भरे हों, उद्यान में स्थित भवन हो; तोरण-प्रासाद-नागों, यक्षों का स्थान हो या अन्य सुन्दर स्थान समाधि के लिए प्रशस्त है। बक्षपक की वसतिका, गायनशाला, नृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, कुम्भकारशाला, यन्त्रशाला, शंख, हाथीदाँत आदि का काम करने वालों का स्थान, कोलिक, धोबी, बाजा बजाने वाले, डोम, नट, और राजमार्ग के समीप का स्थान चारणशाला, पत्थर का काम करने वाले, कलाल, आरा चीरने वालों का स्थान, जलाशय, मालाकार का स्थान, आदि स्थानों में नहीं होना चाहिए।
जिसकी दीवार मजबूत हो, कपाट-सहित हों, गाँव के बाहर जहाँ बच्चे, बूढे और चार प्रकार का संघ जा सकता हो, ऐसी वसतिका उद्यान, घर, गुफा, या शून्य घर में होनी चाहिए।
संस्तर संस्तर चार प्रकार के कहे गए हैं
1. भूमि संस्तर
718 :: जैनधर्म परिचय
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