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सर्वप्रथम वह स्तूप था, जिसका हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस ने वर्षोपवासी आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को इक्षुरस का आहार देने के उपलक्ष्य में पारणा-स्थल पर निर्माण कराया था। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में जिस विशाल जैन स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए हैं, परम्परानुश्रुति उसे मूलतः देवों द्वारा निर्मित-हुआ बताती है। यह जैन स्तूप भारत देश का सर्वप्राचीन ज्ञान-स्तूप है। स्तूप का निर्माण-काल ईसापूर्व 600 से कुछ पूर्व ही है। तक्षशिला के निकट सिकरप एवं मथुरा में जैनस्तूप थे। अकबर के शासनकाल में आगरा के साहू टोडर ने मथुरा के 514 स्तूपों का जीर्णोद्धार कराया था 4
गुहा-मन्दिर
तीसरी-चौथी शती ईस्वी से गुहा-मन्दिर अस्तित्व में आये। 5वीं से 12वीं शतीपर्यन्त गुहा-स्थापत्य का स्वर्ण-युग था। शोलापुर के निकट धाराशिव की गुफाएँ अत्यन्त विशाल हैं। तिन्नेवली जिले में स्थित कुलुमुलु के गुहा-मन्दिर सुन्दर हैं। 8वीं, 10वीं शती ई. में राष्ट्रकूट युग में ये ज्ञान-केन्द्र रहे हैं। उड़ीसा में खण्डगिरि-उदयगिरि के गुहा-मन्दिर, बिहार के राजगिरि की सोनभण्डार आदि गुफाएँ, मध्य प्रदेश में विदिशा के निकट उदयगिरि की गुफाएँ, कर्नाटक में श्रवणवेलगोलस्थ चन्द्रगिरि की, सौराष्ट्र में जूनागढ़ की, महाराष्ट्र में बादामी अजन्ता, एलोरा, ऐहोल, पटनी, नासिक, अंकई, धाराशिव (तेरापुर) आदि की तथा तमिलनाडु में कुलुमुलु एवं सित्तनवासल की उत्खनित गुफाएँ अथवा गुहा-मन्दिर जैनगुहा-स्थापत्य के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। मन्दिर की आवश्यकता
सुख का मूल कारण सम्यग्दर्शन है। यह मोक्ष का प्रथम सोपान है। इसे प्राप्त करने का एक कारण देव-दर्शन है। मन्दिर के अभाव में देवदर्शन नहीं हो सकता है, अतः श्रावक भगवान् की वीतराग मुद्रा के दर्शन से आत्म-शुद्धिपूर्वक अपना कल्याण करते हैं। श्रावकों को अपने धन का उपयोग जिनागम में कहे गये जिनबिम्ब, जिनालय, जिनयात्रा, जिनप्रतिष्ठा, दान, पूजा और शास्त्र-लेखनादि सप्त क्षेत्रों में करने का निर्देश है। इसमें जिनबिम्ब और जिनालय बनवाने का कथन है। जो जिनमन्दिर बनवाते हैं, वे सभी पुण्य करते हैं। जिनबिम्ब से शोभायमान जिनमन्दिर मुनिराजों द्वारा वन्दनीय होते हैं। इनके दर्शन-वन्दन से भव्यजीवों के भव-रूपी ताप नष्ट हो जाते हैं "ए नवदेवताओं में जिनचैत्यालय देव के रूप में पूज्यता को प्राप्त हैं।
जिनचैत्यालय होने से भव्यजीव अभिषेक, महोत्सव, घण्टा, चामर, ध्वजा आदि के दान से निरन्तर पुण्य-लाभ करते हैं।28 मन्दिर होने से धार्मिक उत्सव में धार्मिक लोगों के एकत्र होने से धर्म का प्रचार होता है। धर्म के विषय में उत्साह बढ़ता है। पापों का प्रक्षालन होता है। पंचमकाल में श्रमणों के आश्रय-स्थल और धर्मायतन
जिनमन्दिर एवं गृह-वास्तु :: 717
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