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के अनुरूप ही है। चैत्यालय की लम्बाई से आधी चौड़ाई तथा दोनों के योग से आधी ऊँचाई है। उसी प्रकार द्वारों की ऊँचाई से आधी चौडाई है। तीर्थंकर की धर्म-सभा समवसरण है, इसमें देव, विद्याधर, मनुष्य एवं तिर्यंच सभी उपदेश सुनते हैं। इसकी रचना इन्द्र की आज्ञा से कुबेर करता है। समवसरण का निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुरूप ही होता है। जिस प्रकार वास्तुशास्त्र में गृहस्वामी के हाथ से नाप कर उसका विस्तार ग्रहण किया जाता है और शुभाशुभ के अनुसार भवन, मन्दिर आदि का निर्माण किया जाता है; उसी प्रकार जिन तीर्थंकर का समवसरण होता है। उन्हीं तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना के अनुसार समवसरण की रचना होती है, जैसे-समवसरण में प्रथम धूलिशाल कोट एवं वेदियों की ऊँचाई तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई से चौगुनी होती है। चैत्यप्रासाद भूमि, मन्दिरों एवं मन्दिरों के अन्तराल में पाँच भवन हैं, उनकी ऊँचाई, भूमियों के प्रवेश-द्वार पर नाट्य-शालाओं, चैत्य-वृक्षों, ध्वज-स्तम्भों, सिद्धार्थ-वृक्षों, क्रीड़ाशालाओं, प्रासाद, स्तूप एवं बारह सभाओं के कोठों की ऊँचाई, तीर्थंकर के शरीर की ऊँचाई से बारह-गुणी होती है। सीढ़ियों की ऊँचाई, चौड़ाई एवं वापिकाओं की लम्बाई, चौड़ाई बराबर होती है। प्रतिष्ठाग्रन्थों में सुख को चाहने वालों को वास्तुशास्त्रानुसार ही मन्दिर एवं प्रतिमा के निर्माण कराने का निर्देश है, एवं भूमि के शुभाशुभ लक्षण और भूमि-परीक्षा के अनेक प्रकार दिये हैं। वर्तमान में वास्तु के सभी मानोन्मान जैनधर्म की त्रैलोक्य सम्बन्धि अकृत्रिम जिनालयों की मान्यताओं से प्रभावित हैं, ऐसा डॉ. हीरालाल जी का मत है।
मन्दिर निर्माण-विधि
प्रतिष्ठापाठ में मन्दिर-निर्माण की तीन विधियाँ कही हैं1. मन्दिर निर्माण के लिए वर्गाकार भूमि के पच्चीस अंश प्रमाण भागकर मध्य
के नव अंश में मध्य भाग में अर्हन्त की स्थापना करे, दोनों पार्श्वभाग में सिद्ध और उपाध्याय, ऊर्श्वभाग में आचार्य और अन्य स्थानों में आगम, निर्वाणक्षेत्र, साधु, मण्डलविधान का स्थान एवं सामग्री का स्थान बनाना चाहिए। पूर्वोत्तर द्वार या दक्षिण द्वार, पूर्वदिशा में नृत्यसंगीत का स्थान, उत्तर में स्वाध्याय-कक्ष, पश्चिम भाग में भण्डार, दक्षिण में विद्या-शाला एवं चारों
तरफ प्रदक्षिणा भूमि बनाकर यन्त्र की तरह मन्दिर निर्माण करना। 2. पूर्व उत्तर में बड़ा द्वार, दक्षिण में छोटा द्वार मध्यभाग में देवच्छद की वेदी,
उसमें एक सौ आठ गर्भगृह, इनमें जिनबिम्ब, चारों तरफ प्रदक्षिणा, आगे प्रेक्षागृह, आस्थान-मण्डप पीछे पुष्करिणी वापिका निर्माण कर अकृत्रिम
जिनालय की तरह रचना करना चाहिए।" 3. पूर्वोत्तर या उत्तर में एक ही द्वार, बीच में चौक, महाशान्तिकादि मण्डल
जिनमन्दिर एवं गृह-वास्तु :: 715
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