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शास्त्रीय वैभव को आचार्य श्री पार्श्वदेव के द्वारा रचित संगीत-समयसार में आसानी से देखा जा सकता है। जैनाचार्यों ने भेद-विज्ञान और सम्यग्ज्ञान-कला के माध्यम से मुक्तिजैसी दुर्लभ निधि को सहज ही उपलब्ध किया है। इस प्रकार जैन अध्यात्म-विद्या का क्षेत्र कला-विरहित-क्षेत्र नहीं है। आत्म-विद्या के क्षेत्र में कला की कई अभिनव मुद्राएँ व्यक्त हुई हैं। आत्मा के खोजियों ने कला को एक उदात्त और उत्तम खोज कहा है। जैन संगीत इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
नाद संगीत का प्राण है। यह नाद शब्द संस्कृत धातुपाठ की नद् धातु से निष्पन्न होता है। इसका मूल अर्थ अव्यक्त शब्द है। अव्यक्त और व्यक्त ध्वनि के दो रूप हैं। कुछ विद्वान् व्यक्त और अव्यक्त के मिश्रित रूप व्यक्ताव्यक्त को ध्वनि के तीसरे भेद के रूप में स्वीकार करते हैं।...पर मुझे तो लगता है कि संगीत का विषय केवल व्यक्त-नाद ही नहीं, अव्यक्त-नाद भी है। मुझे तो यह भी लगता है कि संगीत में व्यक्त नाद के माध्यम से की जाने वाली आराधना के द्वारा अर्थात् ध्वनियों की आराधना के द्वारा अव्यक्त अनहद नाद को निरन्तर पाने का यत्न होता है, यह यत्न ही नादाराधना है। भाव यह है कि संगीत में केवल व्यक्त ध्वनि का ही अध्ययन नहीं होता है या होना चाहिए, बल्कि अव्यक्त ध्वनियों का भी अध्ययन होना चाहिए और संगीत को व्यक्ताव्यक्त ध्वनि का पर्याय माना जाना चाहिए।
इस नाद का मूल-स्थान मनुष्य के शरीर में नाभि-स्थान को, नाभि-सरोवर को, ब्रह्म-सरोवर को, नाभि-हृद् को माना गया। भाव यह है कि इस नाभि-स्थान को ही, नाभि-सरोवर, तथा नाभि-हृद् कहा गया। इस नाभि-सरोवर में दिव्य कमल उत्पन्न होता है, उस पर ब्रह्मा का आसन परिकल्पित है। ब्रह्मा का स्वरूप चतुर्मुख है, उनकी संज्ञा प्रजापति है। वही सृष्टि के सर्वप्रथम छन्दोगायी हैं। शब्द-ब्रह्म को नद कहा गया और उसी नद से उत्पन्न वाक् को नाद कहा गया। इसीलिए ब्रह्मा को नाद का उद्गाता भी कहा गया और इसीलिए यह भी कहा गया कि वही श्रुति अथवा श्रुत का गायन करते हैं। यह श्रुत शब्दावछिन्न है, अतएव उत्पन्नध्वंशी है, पुद्गलधर्मा है, परन्तु इस भावश्रुत का अर्थ विषयावच्छिन्न है, अनादिनिधन व नित्य है। इसीलिए नाद की उपासना ब्रह्म की उपासना है, क्योंकि उससे तन्मयता उत्पन्न होती है और तन्मयता से जीव आत्मस्थ होता है। ओंकार को नाद अर्थात् ब्रह्म का सर्वोच्च गान माना गया है और इस ओंकार को बिन्दु से युक्त माना गया है। बिन्दु सृष्टि का परम-रहस्य है। इस ओंकार का ही योगी नित्य ध्यान करते हैं, क्योंकि यह ओंकार काम और मोक्ष दोनों का देने वाला है, नाद की प्रतिकृति है। आचार्य विद्यानन्द जी कहते हैं कि नाद स्फोटजन्मा है और यह स्फोट व्यष्टि रूप भी है, समष्टि-रूप भी। व्यष्टि-नाद से उठकर साधक समष्टि-नाद को सुनने का यत्न भी करते हैं और सुनने में यह भी आया है कि उन्हें अनाहत नाद या अनहद नाद के रूप में विराट आत्म-सत्ता में गूंजने वाले इस अपार्थिव नाद को सुनने का सौभाग्य मिलता है। योगिजन
710 :: जैनधर्म परिचय
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