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पर पारम्परिक या स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी का जिनों के साथ निरूपण प्रारम्भ हुआ, जिसके अनेक उदाहरण देवगढ़, ग्यारसपुर, खजुराहो, एलोरा, श्रवणबेलगोल, राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं अन्य स्थानों पर हैं। ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ क्रमशः गोमुख - चक्रेश्वरी, सर्वानुभूति - अम्बिका तथा धरणेन्द्र - पद्मावती यक्षयक्षी का नियमित निरूपण ही जैनकला में सर्वाधिक लोकप्रिय था । यक्षियों में चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती (चित्र सं. 9-10 ) की ही सर्वाधिक स्वतन्त्र मूर्तियाँ जैन पुरास्थलों पर बनी ।
शलाकापुरुषों में से केवल बलराम, कृष्ण, राम और भरत (चक्रवर्ती - रूप में न होकर मुनि-रूप में) की ही मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुई। 10वीं - 11वीं शती ई. की बलराम और वासुदेव कृष्ण के अंकन के उदाहरण देवगढ़ (चित्र सं. 3), खजुराहो, मथुरा और माउण्ट आबू से मिले हैं। बलराम खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर (950-70 ई.) की भित्ति पर स्वतन्त्र रूप में और नेमिनाथ मूर्ति परिकर में वासुदेव कृष्ण के साथ मथुरा और देवगढ़ के उदाहरणों में रूपायित हुए हैं।
श्री लक्ष्मी और सरस्वती के उल्लेख प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में हैं । सरस्वती का अंकन कुषाण काल में ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे. 24, 132 ई.) और श्री लक्ष्मी का अंकन 10वीं शती ई. में हुआ। भारत में सरस्वती की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति भी जैन परम्परा की कुषाण कालीन सरस्वती मूर्ति है । सरस्वती और लक्ष्मी (श्री) की मनोज्ञ मूर्तियाँ मथुरा के अतिरिक्त देवगढ़, खजुराहो, विमल वसही (चित्र सं. 8), लूण वसही और श्रवणबेलगोल से मिली हैं। पुस्तकधारिणी सरस्वती की कलात्मक दृष्टि से सुन्दरतम मूर्तियाँ बीकानेर के समीप पल्लू से मिली हैं। 10वीं शती ई. से 14 या 16 मांगलिक स्वप्न समूह में भी श्री (लक्ष्मी) का गजलक्ष्मी रूप में अंकन देवगढ़, खजुराहो एवं कुम्भारिया के जैन मन्दिरों के प्रवेशद्वारों के मेहराबों पर देखा जा सकता है। समृद्धि की देवी लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती के पूजन और मूर्ति निर्माण की परम्परा अखिल भारतीय परम्परा का वैशिष्ट्य है। जिसे जैनधर्म और कला में भी जीवन के दो मुख्य और अनिवार्य तत्त्वों का रूपांकन मानना चाहिए ।
10वीं से 12वीं शती ई. के मध्य शान्तिदेवी, गणेश (गजमुख, मोदकपात्र युक्त), इन्द्र, ब्रह्मशान्ति एवं कपर्द्दि यक्षों की मूर्तियाँ भी जैन पुरास्थलों पर बनीं । जैन परम्परा
गणेश के लक्षण पूर्णतः वैदिक - पौराणिक परम्परा से प्रभावित हैं। गणेश की स्वतन्त्र मूर्तियाँ ओसिया (जोधपुर, राजस्थान) की 11वीं शती ई. की जैन देवकुलिकाओं, कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर (12 शती ई.) और नडलई के जैन मन्दिर पर उकेरी हैं। ब्रह्मशान्ति एवं कपर्द्दि यक्षों की स्वतन्त्र मूर्तियाँ गुजरात के श्वेताम्बर मन्दिरों पर उत्कीर्ण हैं, जिनके स्वरूप क्रमशः ब्रह्मा और शिव का स्मरण कराते हैं । 7
जिनों और यक्ष-यक्षियों के बाद महाविद्याओं को जैन देवकुल में सर्वाधिक प्रतिष्ठा
मूर्तिकला :: 697
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