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देवों के रूप में जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का रूपायन प्रारम्भ हुआ, जिसका सबसे प्रारम्भिक उदाहरण (छठी शती ई.) अकोटा (गुजरात) से मिला है। हरिवंशपुराण (66.43-45) के अनुसार यक्ष-यक्षी या शासन देवता सर्वदा वीतरागी तीर्थंकरों के समीप रहते हैं और जिनभक्तों की भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं। साथ ही भूत, पिशाच, ग्रह, रोग आदि के प्रकोप को भी शान्त करते हैं। यक्ष-यक्षियों का अंकन जिनमूर्तियों के सिंहासन या पीठिका पर क्रमश: दाहिने और बाएँ छोरों पर किया गया। जिनमूर्तियों में यक्ष-यक्षी का रूपायन जैनकला में जैनधर्म-दर्शन के दो भावभूमि को सम्पृक्त रूप में व्यक्त करता है। वीतरागी जिन आध्यात्मिक उत्कर्ष के श्रेष्ठ स्तर की प्रेरणा देते हैं, जबकि यक्ष-यक्षी भक्तों की भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं। ___ लगभग छठी से नौवीं शती तक के ग्रन्थों में केवल यक्षराज (सर्वानुभूति), धरणेन्द्र, चक्रेश्वरी, अम्बिका और पद्मावती की ही कुछ लाक्षणिक विशेषताओं के उल्लेख मिलते हैं। 24 जिनों के यक्ष-यक्षी की सम्पूर्ण सूची लगभग आठवीं-नौवीं शती ई. में निर्धारित हुई (कहावली, तिलोयपण्णति और प्रवचनसारोद्धार) | जबकि उनकी स्वतन्त्र लाक्षणिक विशेषताएँ 11वीं-12वीं शती ई. में नियत हुई, जिनके उल्लेख निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प्रतिष्ठासारसंग्रह, एवं परवर्ती प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलकम् जैसे शिल्पशास्त्रों में हैं।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं की सूचियों में मातंग, यक्षेश्वर एवं ईश्वर यक्षों तथा नरदत्ता, मानवी, अच्युता एवं कुछ अन्य यक्षियों के नामोल्लेख एक से अधिक जिनों के साथ किये गये हैं। भृकुटी का यक्ष और यक्षी दोनों के रूप में उल्लेख है। 24 यक्ष और यक्षियों में से कई के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषताएँ वैदिकपौराणिक और कभी-कभी बौद्ध देवताओं से मेल खाती हैं। वैदिक-पौराणिक देवों से प्रभावित यक्ष-यक्षी तीन कोटि में विभाज्य हैं। पहली कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी हैं, जिनके मूल देवता आपस में किसी प्रकार सम्बन्धित नहीं हैं। अधिकांश यक्ष-यक्षी इसी कोटि के हैं। दूसरी कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी हैं, जो मूल रूप से आपस में भी सम्बन्धित हैं, जैसे श्रेयांसनाथ के ईश्वर यक्ष और गौरी यक्षी। तीसरी कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी युगल हैं, जिनमें यक्ष एक और यक्षी दूसरे स्वतन्त्र सम्प्रदाय के देवता के समान हैं।
लगभग छठी शती ई. में सर्वप्रथम सर्वानुभूति एवं अम्बिका को अकोटा में मूर्त अभिव्यक्ति मिली। इसके बाद धरणेन्द्र और पद्मावती की मूर्तियाँ बनीं। लगभग 10वीं शती ई. में अन्य यक्ष-यक्षियों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं। छठी शती ई. में जिन मूर्तियों की पीठिका पर और लगभग नौवीं शती ई. में स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में यक्ष-यक्षियों का निरूपण प्रारम्भ हुआ। छठी से नौवीं शती ई. के मध्य की ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं कुछ अन्य जिनों की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी मुख्यतः सर्वानुभूति (कुबेर) एवं अम्बिका ही हैं। 10वीं शती ई. से सर्वानुभूति एवं अम्बिका के स्थान
696 :: जैनधर्म परिचय
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