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हुआ होता। भाव यह है कि मनुष्य भी पशुवत् ही रहा होता। इसीलिए नीतिशतक में कहा गया- साहित्य-संगीत-कला-विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः । इसीलिए लोक में मान्यता है कि जो सूक्ति सुनकर, गीत में बहकर अथवा बालकों की चेष्टाएँ देखकर द्रवित नहीं होता, वह या तो मुक्त-महात्मा है या पशु है, कुल मिलाकर भाव यह है कि संगीत की ध्वनि ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है और इसीलिए उसे भीतर तक प्रभावित करती है, आन्दोलित करती है। महाकवि जन्न ने अपने अनन्तनाथ काव्य में लिखा है कि संगीत से पत्थर पिघल जाता है, भयंकर सर्प भी स्वर-लहरी में तन्मय होकर बड़े सौम्य भाव से सिर डुलाने लगता है; पुरुष पल्लव-अधिकता से विकसित होने लगते हैं; पशु मोहित मुग्ध हो जाते हैं और लगातार रोने वाला बालक शान्त हो जाता है, बादल बरसने लगते हैं। इसलिए हे भगवन! क्या संगीतात्मक प्रार्थना मुझे आत्मा में तन्मय कर आपसदृश् नहीं बना सकती। "कल्लु करगुवदु। उग्रफणि सोल्लुवदु। वणभरं पल्लिविपुदु। एरलिसिलकुवदु पशु मो हिपदु। निल्लदे अलुव एले पसुले। संतसव ने दुवदु। मुगिलो सर्दु भले गरेवदु । सल्ललिते संगीतरस के यत्रं निन्नते भाडनंत जिनेन्द्र"। भाव यह है कि जहाँ जैनधर्म में नर से नारायण बनने की बात आत्म-साधना से की गयी है, वहीं इस आत्म-साधना के माध्यम के रूप में जैन संगीताचार्यों ने संगीत को भी माना है और इसीलिए इस तरह के भाव कवि जन्न ने अपने काव्य में व्यक्त किए हैं।
जैन संगीत मानता है कि प्रभु की स्तुति के पद श्लोकमय, छन्दमय या भजन के रूप में मिलते हैं। उन्हें भक्त जब गाता है, तो तन्मय हो जाता है। कुल मिलाकर भजन की गायन रूप भक्ति में तन्मयता की अनुभूति होती है। विविध रागों में गाये हुए पद मन में शान्ति उत्पन्न करते हैं और अद्भुत आनन्द की अनुभूति होती है। इस प्रकार संगीत भक्ति में सहायक है और यही कारण है कि आचार्यों ने ओंकार को परम संगीत कहा है। यह ओंकार जहाँ ईश्वर का वाचक है, वहीं ईश्वर के माध्यम पंच-परमेष्ठि का वाचक भी है और पंच-परमेष्ठि के रूप में विराजमान मूल आत्मा का वाचक है। इसलिए ओंकार की आराधना परम संगीत की आराधना है, संगीतमय आत्मा की आराधना है। नाभि केन्द्र से उठने वाला ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत में किया गया ओंकार-रूप-उच्चारण जहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश रूप तीनों शक्तियों का वाचक बनता है, वहीं पंचाक्षरी ओंकार पंच-परमेष्ठि के संगीत में बहाकर सराबोर करने वाले अध्यात्म-सरोवर में डुबकी लगाने वाला बन जाता है। आचार्य विद्यानन्दजी कहते हैं कि भक्ति के लिए तन्मयता और तन्मयता के लिए नाद-सौन्दर्य आवश्यक है, नाद-सौन्दर्य की भावना संगीत को जन्म देती है। कैसा अद्भुत विचार है जैनाचार्य का! वीणा की झनकार, वेणुकी स्वर-माधुरी, मृदंग, मुरज, पर्णव, दर्दुर, पुष्कर आदि अनेक वाद्य प्राणों में एकीभाव उत्पन्न करते हैं, एकीभाव से ध्यान की सिद्धि होती है और ध्यान की सिद्धि से मन, वचन काय एकनिष्ठ होकर समाधि का अनुभव करते हैं। वीर, श्रृंगार और शान्त रस की अनुभूति को संगीत से सौ-गुना
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