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(हसन, कर्नाटक) की 58 फीट ऊँची गोम्मटेश्वर बाहुबली की महाप्रमाण शैलोत्कीर्ण मूर्ति गहन साधना और त्याग का जीवन्त प्रतीक है। यह मूर्ति जैनकला के साथ ही भारतीय कला का भी अप्रतिम उदाहरण है। प्रकृति और विषधर जीवों के साहचर्य में बाहुबली की निश्चल साधना सहृदय मनुष्य और प्रकृति के सह-अस्तित्व का वर्तमान के सन्दर्भ में अनुकरणीय उदाहरण भी है।
देवगढ़, सिरोन, खजुराहो एवं बिल्हारी की दिगम्बर परम्परा की मूर्तियों में आदिपुराण (खण्ड 2, 36.183) और हरिवंशपुराण (11.101) के विवरणों के अनुरूप दोनों पार्यों में सर्वालंकृत सुदर्शना दो विद्याधरियों को बाहुबली के शरीर से लिपटी माधवीलताओं को हटाते हुए दिखाया गया है। खजुराहो और देवगढ़ की दो बाहुबली मूर्तियों (12वीं शती ई.) में जिन के समान ही उनके साथ अष्ट-प्रातिहार्य सहित यक्ष-यक्षी को भी निरूपित किया गया है। देवगढ़ की 11वीं शती ई. की एक त्रितीर्थी मूर्ति में एक ही पीठिका पर दो जिनों के साथ समान आकार-प्रकार वाली तीसरी मूर्ति बाहुबली की है। ये मूर्तियाँ जैनकला का वैशिष्ट्य प्रकट करती हैं, जिसमें तीर्थंकर न होते हुए भी त्याग-साधना का श्रेष्ठ प्रतीक होने के कारण बाहुबली को जिनों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गयी।
त्याग, साधना और अहिंसा का श्रेयस् –मार्ग जैन कला में सर्वदा दृढ़ता और स्पष्टता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इसका उदाहरण न केवल बुद्ध एवं वैदिक-पौराणिक परम्परा के शिव, विष्णु, शक्ति जैसे देवी-देवताओं की मूर्तियों में प्रदर्शित अभय एवं वरद-मुद्रा के स्थान पर वीतरागी तीर्थंकरों की आध्यात्मिक साधना की मुद्राओं (ध्यान एवं कायोत्सर्ग) और कायोत्सर्ग-मुद्रा में बनी लता-वल्लरियों से वेष्टित बाहुबली की मूर्तियों में द्रष्टव्य है, वरन् भरत मुनि की मूर्तियों से भी यही भाव व्यक्त हुआ है। ध्यातव्य है कि भरत की मूर्ति चक्रवर्ती शासक के रूप में नही बनीं। भरत ने जब चक्रवर्ती पद का त्यागकर दीक्षा ली और साधना के मार्ग पर चले, तभी उपास्यदेव बने और इसी कारण जैन कला में भरत की मूर्तियाँ मुनि रूप में बनीं, जो जैनकला का वैशिष्ट्य होने के साथ ही भारतीय कला एवं चिन्तन का भी विलक्षण उदाहरण है। देवगढ़ (उ.प्र.), शत्रुजय (गुजरात) एवं श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) से प्राप्त मूर्तियों में भरत मुनि को कायोत्सर्ग-मुद्रा में साधनारत दिखाया गया है और उनकी मूर्ति की पीठिका पर चक्रवर्ती पद के अभिलक्षण, जिनका दीक्षा के पूर्व भरत ने त्याग किया था, उत्कीर्ण हैं। इनमें नवनिधियों (कुबेर सहित नवघट) एवं 14 रत्नों (खड्ग, खेटक, अश्व, गज आदि; (महापुराण, खण्ड एक, भाग दो, 37, 73-74; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, 1.4.708-712) का अंकन एक चक्रवर्ती के भौतिक जगत् की सत्ता और समृद्धि के सम्पूर्ण त्याग को व्यक्त करता है। ऐसे त्याग के बाद ही भारतीय परम्परा में कोई भी उपास्य या आराध्यदेव के रूप में प्रतिष्ठित होता है। भारतीय संस्कृति के मर्म का इससे
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