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इससे आगे क्रमशः (2) हरिताल, (3) सिन्दूर, (4) श्यामक, (5) अंजन, (6) हिंगुलिक, (7) रुप्यवर, (8) स्वर्णवर, (9) वज्रवर, (10) वैडूर्यवर, (11) नागवर, (12) भूतवर, (13) यक्षवर, (14) देववर, (15) अहीन्द्रवर और अन्तिम (16) स्वयंभूरमण द्वीप हैं। ये द्वीप अपने-अपने नामों वाले 16 समुद्रों से संयुक्त होते हुए मध्यलोक के बाहरी भाग में स्थित हैं। क्रौंचवर समुद्र और मन:शिला द्वीप के मध्य में जो असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, वे भी उत्तम नामों वाले हैं। इन असंख्यात द्वीपसमुद्रों के दो-दो व्यन्तर देव अधिपति माने गये हैं। इनमें प्रथम देव दक्षिण दिशा का और दूसरा देव उत्तर दिशा का अधिपति है।
स्वाद-रस-मध्यलोक के इन समुद्रों में लवणसमुद्र के जल का स्वाद नमक जैसा खारा है। वारुणीवर का वारुणी (शराब) जैसा, क्षीरवर का क्षीर (दूध) जैसा और घृतवर के जल का स्वाद घी-जैसा है। कालोदक, पुष्करवर और स्वयंभूरमण समुद्रों का जल सामान्य जल के स्वादवाला है। शेष सभी समुद्रों का जल इक्षुरस (गन्ने के रस)जैसे स्वाद वाला है। किन्हीं के मत में पुष्करवर समुद्र के जल का स्वाद मधुमिश्रित जल-जैसा है।
समुद्रों में जलचर- कर्मभूमि से सम्बन्ध होने के कारण लवणसमुद्र, कालोदक और अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं। शेष समुद्र भोगभूमि सम्बन्धी हैं। अत: उनमें जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं।
द्वीपों में तिर्यंच- मानुषोत्तर से स्वयंप्रभ पर्वत मध्यलोक के असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोग-भूमिया तिर्यंच ही पाये जाते हैं-93 "वरदो सयंपहोत्तिय जहण्णभोगावणी तिरिया"-त्रि.सा.-323
कर्मभमिज तिर्यंच- स्वयंप्रभपर्वत के बाहरी भाग में कर्मभमि की रचना है। उत्कृष्ट अवगाहना वाले त्रस जीव यहीं पाये जाते हैं। असंख्यात देशव्रती तिर्यंच भी यहाँ होते हैं। विकलेन्द्रिय जीव इस तरफ मानुषोत्तर पर्वत तक तथा उस ओर स्वयंप्रभ पर्वत के बाहरी भाग में स्वयंभूरमण समुद्र के अन्त तक पाये जाते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले त्रस जीव एकेन्द्रियों में कमल की लम्बाई एक हजार योजन से कुछ-अधिक है। द्वीन्द्रियों में शंख की 12 योजन लम्बाई है। त्रीन्द्रियों में चींटी की 3/4 योजन अर्थात् 3 कोश, चतुरिन्द्रियों में भ्रमर के शरीर की लम्बाई 1 योजन = 4 कोश होती है। पंचेन्द्रियों में महामत्स्य के शरीर की लम्बाई एक हजार योजन होती है। ___ पर्वतविशेष-विजयार्ध-अपने दोनों छोरों (किनारों) से समुद्र को छूने वाला, पूर्वपश्चिम में लम्बायमान विजयार्ध-पर्वत भरत-क्षेत्र के मध्य में स्थित है। यह 25 योजन ऊँचा, 6% योजन गहरा और 50 योजन भूतल पर फैला है। ये रजत-मय (श्वेत-वर्ण) है। इसमें तीन श्रेणियाँ हैं। भूतल से 100 योजन ऊपर इस पर्वत पर 10 योजन विस्तृत, पर्वत–जितनी लम्बी दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं। दक्षिणश्रेणी में 50 तथा उत्तरश्रेणी में 60
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