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"प्राणानामावादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्व मदु। कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्बेदमं भूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं ईलापिंगलसुषुम्नादिबहुप्रकार प्राणापानविभागमं दशप्राणंग-लुपकारकापकारक द्रव्यंगलुमं गत्याद्यनुसारदिंवर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणित पंचाशदुत्तरषट्शतपदंगलुत्रयोदशकोटिगलप्पुवं बुदर्थ। 13 को 13000000013
जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत छाया-प्राणानां आवादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावायं द्वादशं पूर्व, तच्च कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेद भूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं इलापिंगलासुषुम्नादिबहुप्रकार प्राणापानविभागं दशप्राणानां उपकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति। तत्र द्विलक्षगुणित पंचाशदुत्तरषट्छतानि पदानि त्रयोदशकोटय इत्यर्थ : 13 को।
- अर्थात् प्राणों का आवाद-कथन जिसमें है, वह प्राणावाद नामक बारहवाँ पूर्व है। वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलिप्रक्रम, ईड़ा-पिंगला-सुषुम्नादि अनेक प्रकार के प्राण-अपान (श्वासोच्छ्वास) के विभाग तथा दस प्राणों के उपकारक अपकारक द्रव्य का गति आदि के अनुसार वर्णन करता है। उसमें दो लाख से गुणित छह सौ पचास अर्थात् तेरह करोड़ पद हैं।
द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणावाय पूर्व नामक अंग मूलत: अर्धमागधी भाषा में लिपिबद्ध है। इस प्राणावाय पूर्व के आधार पर ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी प्राणावाय पूर्व के आधार पर ही कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रन्थ की रचना की। इस तथ्य का उल्लेख आचार्य श्री ने अपने कल्याणकारक नामक ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर किया है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है
सर्वार्थाधिकमागधीविलसद् भाषापरिशेषोज्वलप्राणावायमहागमादवितथं संग्रह्य संक्षेपतः। उग्रादित्यगुरुर्गुरुगुणैरुद्भासि सौख्यास्पदं
शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः।। अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली अर्धमागधी भाषा में जो अत्यन्त सुन्दर प्राणावाय नामक महागम (महाशास्त्र) है, उसे यथावत् संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रादित्य गुरु ने उत्तमोत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस (कल्याणकारक) शास्त्र की संस्कृत भाषा में रचना की। इन दोनों (प्राणावाय और कल्याणकारक) में यही अन्तर है।
उपर्युक्त विवरण के अनुसार आयुर्वेद के आठ अंग होते हैं। स्थानांग में भी आयुर्वेद के आठ अंगों की चर्चा की गयी है। यथा
"अट्टविधे आउवेदे पण्णते तं जहा - कुमारभिच्च कायतिगिच्छा सालाती सल्लहत्ता जंगोली भूतवेज्जा खारतंते रसायणे।''6 अर्थात् अष्टविध आयुर्वेद का वर्णन किया जाता है। यथा-कौमारभृत्य, कायचिकित्सा,
आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 623
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