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वैशिष्ट्य के साक्षी हैं। ओसियां, खजुराहो, मथुरा, देवगढ़, एलोरा, बादामी, अयहोल ऐसे ही कुछ पुरास्थल हैं।
तुलनात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत कम शासकीय समर्थन के बावजूद व्यापारियों, व्यवसायियों एवं व्यापक लोक समर्थन के कारण जैनधर्म एवं कला ने अभूतपूर्व उन्नति की। यही कारण था कि बिना विशेष राजकीय समर्थन के कई स्वतन्त्र एवं लम्बी कालावधि वाले जैन कलाकेन्द्र भी विकसित हुए, जिनमें मथुरा (उ. प्र. 150 ई. पू. से 1032 ई.), देवगढ़ (ललितपुर, उ.प्र., छठी से 16वीं शती ई.) खण्डगिरि गुहा (उडीसा, 11वीं-12वीं शती ई.) देलवाडा (माउण्ट आबू, राजस्थान 1035 से 13वीं शती ई.) तथा कुम्भारिया (बनासकांठा, गुजरात, 11वीं- 13वीं शती ई.) कुछ मुख्य जैनपुरास्थल हैं। जैनधर्म और कला को जैनेतर शासकों एवं लोकसमर्थन मिलने के चार कारण थे : प्रथम - भारतीय शासकों की धर्मसहिष्णुनीति; द्वितीय - जैनधर्म का अन्य धर्मों के प्रति आदर और समन्वय का भाव; तृतीय - जैनधर्म की व्यापारियों- व्यवसायियों एवं सामान्य जनों के मध्य विशेष लोकप्रियता; चतुर्थ - नारी जगत का विशेष समर्थन एवं सहयोग | जैनधर्म एवं कला के विकास में महिलाओं का योगदान अग्रणी रहा है, जिसके प्रारम्भिक अभिलेखीय प्रमाण कुषाणकाल से ही मिलने लगते हैं । मथुरा के कुषाणकालीन जैन मूर्तिलेखों में श्रेष्ठिन्, सार्थवाह, गन्धिक, सुवर्णकार, वर्धकिन् (बढ़ई), लौहकर्मक, प्रातारिक (नाविक), वेश्या, नर्तकी एवं विदेशी मूल की महिलाओं के प्रचुर उल्लेख हैं।' ओसियां, खजुराहो, जालोर एवं अन्य अनेक मध्ययुगीन जैन पुरा - स्थलों के मूर्तिलेखों से उपर्युक्त चार बातों की पुष्टि होती है ।
जैनधर्म में मूर्ति-निर्माण एवं पूजन की प्राचीनता पर विचार करना भी यहाँ प्रासंगिक है । भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता है, जिसका काल लगभग 2300 ई.पू. से 1750 ई.पू. है । सैन्धव सभ्यता के प्रारम्भिक अवशेष मुख्यतः हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो से हमें पाँच ऐसी मुहरें मिली हैं, जिन पर कायोत्सर्ग - मुद्रा जैसी मुद्रा में दोनों हाथ नीचे लटकाकर खड़ी पुरुष आकृतियाँ बनी हैं। हड़प्पा से एक नग्न पुरुष आकृति (कबन्ध) भी मिली है। ये सिन्धु सभ्यता से प्राप्त ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें आकृतियों की नग्नता और उनकी मुद्रा (कायोत्सर्ग जैसी) परवर्ती जिन मूर्तियों का स्मरण कराते हैं, किन्तु सैन्धव सभ्यता की लिपि को पूरी तरह पढ़े जाने तक इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना समीचीन नहीं होगा ।
प्रामाणिक तौर पर प्राचीनतम ज्ञात तीर्थंकर (या जिन) मूर्ति मौर्यकाल की है। यह मूर्ति पटना के समीप लोहानीपुर (चित्र सं. 1) से मिली है और सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। मूर्ति का दिगम्बरत्व और कायोत्सर्ग - मुद्रा इसके जिनमूर्ति होने के निश्चयात्मक प्रमाण हैं। ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग-मुद्रा केवल जिनों के निरूपण में ही व्यक्त हुई है । इस मूर्ति के सिर, भुजा और जानु का भाग खण्डित है। मूर्ति पर मौर्ययुगीन
688 :: जैनधर्म परिचय
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