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मूर्तिकला (कलात्मक एवं सामाजिक सन्दर्भ और वैशिष्ट्य)
प्रो. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी
भारतीय कला तत्त्वतः धर्म के माध्यम से जीवन की मूर्त अभिव्यक्ति है। कला के विभिन्न माध्यमों में अनेकशः धार्मिक आस्था और उसके प्रतीक आराध्य देवों को मूर्त अभिव्यक्ति प्रदान की गयी। काल एवं क्षेत्र के सन्दर्भ में सम्बन्धित धर्म या सम्प्रदाय और जीवन शैली में होने वाले वैचारिक तथा सामाजिक परिवर्तनों एवं विकास से शिल्प की विषयवस्तु में भी परिवर्तन हुए। वस्तुतः विभिन्न धर्मों एवं समकालीन जीवन से सम्बन्धित कला ही अपने समष्टिरूप में भारतीय कला है। शैली की दृष्टि से किसी काल विशेष की कला में भिन्नता नहीं होती, उनकी स्वरूपगत भिन्नता उनके धार्मिक कलेवर और विषयवस्तु यानी देवमूर्तियों के लक्षणों के सन्दर्भ में ही देखी जा सकती है। शिल्पी या रूपकार केवल कला-धर्मी ही होता था। जैनधर्म श्रमण-परम्परा का एक प्रधान धर्म रहा है। यद्यपि जैनधर्म पर विद्वानों ने विस्तार से कार्य किया है, तथापि जैनधर्म के सिद्धान्तों की प्रत्यक्ष संवाहिनी जैनकला पर यथेष्ट कार्य नहीं हुआ है।
स्थापत्य, मूर्ति तथा चित्र तीनों ही विधाओं में जैनकला धर्म एवं दर्शन के वैशिष्ट्य को समाहित कर मौर्य काल से निरन्तरता में विकसित हुई। साथ ही जैनकला में भारतीय संस्कृति एवं कला का समष्टिरूप भी अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें उदारता और परस्परता दोनों के उदाहरण देखे जा सकते हैं। वीतरागी तीर्थंकरों (जिनों), बाहुबली एवं भरत मुनि की मूर्तियों में जैनधर्म के त्याग और साधना की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हुई है, जिसे जन-जन तक सम्प्रेषित करना ही धर्म और कला का मूल उद्देश्य रहा है। प्रस्तुत लेख में हम जैन मूर्तियों की प्रारम्भ से लेकर 14वीं-15वीं शती ई. के मध्य की विकासयात्रा और साथ ही जैन मूर्तिकला के निजी एवं अखिल भारतीय वैशिष्ट्य की विवेचना करने का प्रयास करेंगे।
भारतीय इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट है कि जैन परम्परा में कुछ ही शासकों, सामन्तों एवं सेनापतियों ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया था। इनमें मौर्य (चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्प्रति, चौथी-तीसरी शती ई.पू.), चेदि (खारवेल, पहली शती ई.पू.), गुप्त (रामगुप्त,
686 :: जैनधर्म परिचय
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