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मूर्तियों में जिनों के साथ समान आकार वाली सरस्वती और बाहुबली आकृतियों का अंकन, बाहुबली और अम्बिका की दो मूर्तियों (देवगढ़, खजुराहो) में यक्ष-यक्षी का निरूपण तथा ऋषभनाथ (चित्र सं. 2) की कुछ मूर्तियों (देवगढ़, खजुराहो) में पारम्परिक यक्ष-यक्षी, गोमुख-चक्रेश्वरी के साथ ही अम्बिका, लक्ष्मी, सरस्वती का अंकन इस कोटि के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
__श्वेताम्बर और दिगम्बर स्थलों की शिल्प-सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पुरुष देवों की तुलना में देवियों की आकृतियाँ बहुत अधिक संख्या में उकेरी गयीं। जैनकला में देवियों की विशेष लोकप्रियता तान्त्रिक प्रभाव का परिणाम हो सकती है। देवियों (यक्षी एवं महाविद्या) की प्रभूत संख्या में उकेरी स्वतन्त्र मूर्तियाँ जैन परम्परा में शक्तिपूजन की विशेष लोकप्रियता का भी संकेत देती हैं।
तान्त्रिक प्रभाव के अध्ययन की दृष्टि से कतिपय सन्दर्भो की ओर ध्यान आकृष्ट करना भी यहाँ उपयुक्त होगा। खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर (950-70 ई.) की भित्ति पर चारों तरफ शक्तियों के साथ आलिंगन-मुद्रा में ब्राह्मण देवों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनमें शिव, विष्णु, ब्रह्मा, अग्नि, कुबेर, राम, बलराम और कामदेव की शक्तिसहित आलिंगन मूर्तियाँ हैं, जो स्पष्टतः खजुराहो के वैदिक-पौराणिक परम्परा के मन्दिरों का प्रभाव है। इसी मन्दिर के उत्तरी और दक्षिणी शिखर एवं गर्भगृह के शिखर पर काम-क्रिया में रत तीन युगल भी आमूर्तित हैं। काम शिल्प और आपत्तिजनक स्थिति में जैन साधुओं के कुछ अंकन देवगढ़ एवं खजुराहो के जैन मन्दिरों के प्रवेश-द्वारों पर भी द्रष्टव्य हैं। छत्तीसगढ़ के आरंग स्थित जैन मन्दिर (भाण्ड देउल, 11वीं शती ई.) पर भी काम-शिल्प विषयक कई मूर्तियाँ हैं। उपर्युक्त दिगम्बर स्थलों के अतिरिक्त नाडलाई (पाली, राजस्थान) के शान्तिनाथ मन्दिर (श्वेताम्बर) के अधिष्ठान पर भी काम-क्रिया में रत कई युगलों का अंकन हुआ है। यद्यपि जैन मन्दिरों पर देवताओं की शक्ति सहित आलिंगन मूर्तियाँ एवं काम-शिल्प पर उत्कीर्णन परम्परा-सम्मत नहीं है, तथापि जैन धर्म में समय के अनुरूप कुछ आवश्यक परिवर्तन भी होते रहे हैं। मध्य युग तान्त्रिक प्रभाव का युग था। फलतः जैनधर्म में भी उस प्रभाव को किंचित् नियन्त्रण के साथ स्वीकार किया गया, जिसे कला में भी उपर्युक्त स्थलों पर अभिव्यक्ति मिली, पर इस प्रभाव को उद्दाम नहीं होने दिया, जैसाकि खजुराहो, मोढेरा और उड़ीसा के वैदिक-पौराणिक परम्परा के मन्दिरों पर काम-शिल्प के उद्दाम अंकनों में देखा जा सकता है।
जैन ग्रन्थ हरिवंशपुराण (जिनसेन कृत, 783 ई.) में एक स्थल पर उल्लेख है कि श्रेष्ठि कामदत्त ने एक जिन मन्दिर का निर्माण करवाया और सम्पूर्ण प्रजा के कौतुक के लिए इस मन्दिर में कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी। ग्रन्थ में यह भी उल्लेख है कि जिन मन्दिर कामदेव के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था और कौतुकवश आये लोगों
692 :: जैनधर्म परिचय
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