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को जिनधर्म की प्राप्ति का कारण भी था।" जिन मूर्तियों के पूजन के साथ ग्रन्थ में रति और कामदेव की मूर्तियों के पूजन का भी उल्लेख है। जैन हरिवंशपुराण का उल्लेख स्पष्टतः कामशिल्प के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अभीष्ट को प्रकट करता है, जो जैनकला का वैशिष्ट्य भी रहा है। इसी पृष्ठभूमि में मध्यप्रदेश में खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर (ल. 950-70 ई.) एवं कर्नाटक में जिननाथपुर (हसन) स्थित शान्तिनाथ मन्दिर (12वीं शती ई.) पर पंचपुष्पशर एवं इक्षुधनु से युक्त कामदेव की स्वतन्त्र एवं शक्तिसहित मूर्तियाँ बाह्य भित्ति पर उकेरी गयीं।
आठवीं से 12वीं-13वीं शती ई. के मध्य के जैन ग्रन्थों (पादलिप्तसूरि कृत निर्वाणकलिका-ल. 900 ई. हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र-12वीं शती ई. का उत्तरार्ध एवं जिनसेन और गुणभद्र कृत महापुराण (आदिपुराण एवं उत्तरपुराण), आठवीं-नौवीं शती ई., वसुनन्दी कृत प्रतिष्ठा-सार-संग्रह-12वीं शती ई., आशाधर कृत प्रतिष्ठासारोद्धार-13वीं शती ई. का पूर्वार्ध जैसे श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थ) में जैन देवकुल और जिनों तथा अन्य देवों के स्वतन्त्र लक्षणों का उल्लेख हुआ है। पूर्ण विकसित जैन-देव-कुल में 24 जिनों एवं अन्य 39 शलाकापुरुषों के अतिरिक्त, 24 यक्ष-यक्षी, 16 महाविद्याएँ, अष्ट-दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, गणेश, श्री लक्ष्मी एवं सरस्वती, ब्रह्मशान्ति यक्ष, कपर्दि यक्ष, बाहुबली, 64 योगिनी, शान्तिदेवी, जिनों के माता-पिता एवं पंचपरमेष्ठी सम्मिलित हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जैन-देव-कुल का विकास बाह्य दृष्टि से समरूप रहा है। केवल देवताओं के नामों एवं कभी-कभी उनकी लाक्षणिक विशेषताओं के सन्दर्भ में ही दोनों परम्पराओं में भिन्नता दृष्टिगत होती है। महावीर के गर्भापहरण, जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्ति- परम्परा एवं मल्लिनाथ के नारी तीर्थंकर होने के उल्लेख केवल श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही वर्णित हैं, इसी कारण उनके मूर्त उदाहरण भी केवल श्वेताम्बर स्थलों पर ही उपलब्ध हैं। ___मूर्ति-लक्षण की दृष्टि से लगभग नौवीं-10वीं शती ई. तक जिन मूर्तियाँ पूर्णत: विकसित रूप से उकेरी जाने लगीं। पूर्ण विकसित जिन मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी एवं अष्टप्रातिहार्यों के साथ ही लघ्वाकार जिन मूर्तियों, नवग्रहों, सरस्वती, लक्ष्मी, गजाकृतियों, धर्मचक्र, विद्याओं को भी दर्शाया गया है। सिंहासन के मध्य में पद्म से युक्त शान्तिदेवी, गजों तथा मृगों एवं कलशधारी गोमुख तथा वीणा और वेणुवादन करती आकृतियों का अंकन केवल पश्चिम भारत के श्वेताम्बर-स्थलों पर ही लोकप्रिय था। श्वेताम्बर ग्रन्थ वास्तुविद्या (विश्वकर्मा कृत, 12वीं शती ई. का प्रारम्भ) के 'जिनपरिकरलक्षण' (22.10-12, 33-39) में इन विशेषताओं का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। 11वीं से 13वीं शती ई. के मध्य श्वेताम्बर स्थलों पर ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर के जीवनदृश्यों का भी मन्दिरों की दीवारों और चँदोवा पर विशद अंकन हुआ, जिसके उदाहरण, ओसियां की देवकुलिकाओं,
मूर्तिकला :: 693
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