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फलित विषय के विस्तार में अष्टांग-निमित्तज्ञान भी शामिल है और प्रधानतः यही निमित्तज्ञान संहिता विषय के अन्तर्गत आता है। जैन दृष्टि में संहिता ग्रन्थों में अष्टांग निमित्त के साथ आयुर्वेद और क्रियाकाण्ड को भी स्थान दिया है। ऋषिपुत्र, माघनन्दी, अकलंक, भट्टवसरि आदि के नाम संहिता-ग्रन्थों के प्रणेता के रूप से प्रसिद्ध हैं। प्रश्नशास्त्र और सामुद्रिक-शास्त्र का समावेश भी संहिता-शास्त्र में किया है।
अतः फलित शास्त्र में होराशास्त्र, संहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, प्रश्नशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं निमित्तशास्त्र आदि हैं। __होरा का अर्थ है- लग्न और जातक-शास्त्र। इसकी उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से है। आदि शब्द 'अ' और अन्तिम शब्द 'त्र' का लोप कर देने से 'होरा' शब्द बनता है। लग्न पर से शुभ-अशुभ फल का ज्ञान कराना होरा-शास्त्र का काम है। इसमें जातक के जन्म के समय के नक्षत्र, तिथि, योग, करण आदि का फल अति-उत्तमता के साथ बताया जाता है। जैनाचार्यों ने इसमें ग्रह एवं वर्णस्वभाव, गुण, आकार आदि बातों का प्रतिपादन किया है। जन्म-कुण्डली का फल बताना इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है।
आचार्य श्रीधर ने यह भी बतलाया है कि आकाश स्थित शशि और ग्रहों के बिम्बों में स्वाभाविक शुभ और अशुभपना मौजूद है, किन्तु उनमें परस्पर साहचर्यादि तात्कालिक सम्बन्ध से फल-विशेष शुभ और अशुभ रूप में परिणत हो जाता है, जिसका प्रभाव पृथ्वीस्थित प्राणियों पर भी पूर्णरूप से पड़ता है।
इस शास्त्र में देह, द्रव्य (धनभाव), पराक्रम, सुख, सुत (सन्तान), शत्रु, कलत्र, आयु, भाग्य, राज्यपद (कर्म), लाभ और व्यय इन बारह भावों का वर्णन रहता है। इस शास्त्र में लग्न और लग्नेश को प्राथमिकता दी गयी है। ये-जब जातक की जन्मकुण्डली में अच्छे हों, तो अशुभ सम्भावना घट जाती है। __ जैसे यदि लग्न तथा लग्नेश बलवान हो, तो परिस्थितियाँ विपरीत होने पर भी जातक उन परिस्थितियों को अपने अनुरूप बनाने में सक्षम होता है तथा शरीर, सुख एवं आयु आदि की कमी नहीं होती। यदि लग्न अथवा लग्नेश की स्थिति विरुद्ध है, तो जातक को सब तरह से शुभ कर्मों में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं। लग्न के सहायक लग्न को मिलाकर 12 भाव हैं, क्योंकि आचार्यों ने जन्मकुण्डली (भचक्र) को जातक का पूर्ण शरीर माना है। यदि जन्मकुण्डली में 12 भावों में कोई भाव बिगड़ जाये, तो जातक को उस भाव से सम्बन्धित सुख का अभाव रहता है। ___अतएव लग्न-लग्नेश, भाग्य-भाग्येश, पंचम-पंचमेश, सुख-सुखेश, अष्टम-अष्टेश आदि भाव-भावेश तथा सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों की स्थिति तथा ग्रह स्फुट में वक्री, मार्गी, भावोद्धारक चक्र, द्रेष्काणचक्र, कुण्डली और नवांश कुण्डली आदि का विचार इस शास्त्र में जैनाचार्यों ने विस्तार से किया है। संहिता-इस शास्त्र में भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योद्धार, मेलापक, ग्रहोपकरण
ज्योतिष : स्वरूप और विकास :: 657
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