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के उदयवाले व्यक्तियों के स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं। इसका मुख्य कारण जैनाचार्यों ने यही बताया है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जाग्रत रहती है, केवल इन्द्रियों और मन की शक्ति विश्राम करने के लिए सुषुप्त-सी हो जाती है। जिसके उपर्युक्त कर्मों का क्षयोपशम है, उसके क्षयोपशमजन्य इन्द्रियाँ और मन-सम्बन्धी-चेतना या ज्ञानावस्था अधिक रहती है। इसलिए ज्ञान की उज्ज्वलता से निद्रित अवस्था में जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावि जीवन से है। इसी कारण स्वप्नशस्त्रियों ने स्वप्न को भूत, वर्तमान और भावि जीवन का द्योतक बतलाया है।
उपलब्ध जैन ज्योतिष में स्वप्नशास्त्र अपना विशेष स्थान रखता है। जहाँ जैनाचार्यों ने जीवन में घटनेवाली अनेक घटनाओं के इष्टानिष्ट कारणों का विश्लेषण किया है, वहाँ स्वप्न के द्वारा भावि-जीवन की उन्नति और अवनति का विश्लेषण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ढंग से किया है। यों तो प्राचीन वैदिक धर्मावलम्बी ज्योतिषशास्त्रियों ने भी इस विषय में पर्याप्त लिखा है, पर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित स्वप्न-शास्त्र में कई विशेषताएँ हैं।
वैदिक ज्योतिषशास्त्रियों ने ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना है, इसलिए स्वप्न को ईश्वरप्रेरित इच्छाओं का फल बताया है। वराहमिहिर, बृहस्पति और पौलस्त्य आदि विख्यात गणकों ने ईश्वर की प्रेरणा को ही स्वप्न में प्रधान कारण माना है। फलाफल के विवेचन में दस-पाँच स्थलों में भिन्नता मिलेगी।
जैनस्वप्नशास्त्र में प्रधानतया सात प्रकार के स्वप्न बताये गये हैं1. दृष्ट- जो कुछ जागृत-अवस्था में देखा हो, उसी को स्वप्नावस्था में देखा जाए। 2. श्रुत- सोने से पहले कभी किसी से सुना हो, उसी को स्वप्नावस्था में
देखा जाए। 3. अनुभूत- जिसका जागृत-अवस्था में किसी भाँति अनुभव किया हो, उसी
को स्वप्न में देखे। 4. प्रार्थित- जिसकी जागृत-अवस्था में प्रार्थना-इच्छा की हो, उसी को स्वप्न
में देखे। 5. कल्पित- जिसकी जागृत-अवस्था में कल्पना की गयी हो, उसी को स्वप्न में
देखे। 6. भाविक- जो कभी न देखा हो या सुना हो, पर जो भविष्य में होनेवाला
हो, उसे स्वप्न में देखे। 7. वात, पित्त और कफ इनके विकृत हो जाने से देखा जाए। इन सात प्रकार के स्वप्नों में से केवल भाविक स्वप्न का फल सत्य होता है। फलित जैन ज्योतिषशास्त्र शक संवत् की 5वीं शताब्दी में अत्यन्त पल्लवित और
ज्योतिष : स्वरूप और विकास :: 663
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