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अवस्थादि में होता है, उसी प्रकार संगणक के समुचित प्रयोग के लिए संगणक वैज्ञानिकों की मान्यता है कि विशिष्ट समय व विशिष्ट परिस्थितियों का ध्यान रखा जाये। जिस प्रकार दिव्यध्वनि के विषय में यह मान्यता है कि वह स्वयं अर्थ रूप न होकर, अर्थनिरूपक होती है। इसलिए इसमें नानाप्रकार के हेतुओं के द्वारा भव्य जीवों की शंका समाधान के लिए निरूपण किया जाता है। (णाणाविहहेदूहिं दिव्यझुणी भणइ भव्वाणं।तिलोयपण्णत्ति 4/905) ठीक वैसे ही संगणकीय भाषाएँ स्वयं अर्थ-रूप नहीं होती हैं
और मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में संगणक-वैज्ञानिकों का एक वर्ग यह भी मानता है कि अनुवाद की प्रक्रिया में हमें अर्थ के संसाधन की बात नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थ का स्थान/आश्रय सांसारिक जीवों का/मनुष्यों का मस्तिष्क ही है या हो सकता है, कोई यन्त्र या मशीन नहीं । इसलिए अर्थ को मशीन से संसाधित करने का व्यर्थ का दबाव मशीन पर नहीं डाला जाना चाहिए। जिसप्रकार के भव्यजीवों के शंका निवारणार्थ साधन बनी अभाषात्मक दिव्यध्वनि भव्यजीवों का विषय बनकर सामान्य-भाषात्मक हो जाती है, ठीक उसी प्रकार प्राकलन की भाषाएँ (Programming Languages) सामान्य भाषा की व्यवस्था को अपने में न संजोये-हुए अभाषात्मक होते हुए भी भाषायी संसाधन का माध्यम होने के कारण भाषात्मकता से जुड़ी रहती हैं। जिस प्रकार भव्य जीव अपनी शंकाओं के निवारणार्थ अनन्त ज्ञान के भण्डार पर आधृत दिव्यध्वनि की शरण लेते हैं, ठीक उसी प्रकार आज के युग के संगणक-वैज्ञानिकों की यह मूल परिकल्पना रही है कि जब हम पूरी तरह ज्ञानस्रोत विकसित कर लेंगे, जिसे जिज्ञासा होगी, वह मानव अपनी शंकाओं के समाधान के लिए संगणक के अनन्त ज्ञानकोष की शरण लेगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आज के संगणक-विज्ञान व मशीनी अनुवाद की अधिकांश मान्यताएँ दिव्यध्वनि के मूल सोच पर आधारित हैं, या यों कहें कि इसके विकास में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दिव्यध्वनि के सोच की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यहीं यह भी महत्त्वपूर्ण अनुसन्धेय है कि संगणक-वैज्ञानिकों को अपने संगणकीय तन्त्र को विकसित करने के लिए दिव्यध्वनि के स्वरूप को और-सूक्ष्म तथा विशद रूप में विवेचित करते हुए अपने वैज्ञानिक विकास का आधार बनाना चाहिए।
दिव्यध्वनि : कम्प्यूटर विज्ञान :: 669
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