________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(Recipient) को केन्द्र में रखकर हमें भिन्न-भिन्न प्रकार के Port विकसित करने होंगे, जो एक ही स्रोत-सामग्री को भिन्न-भिन्न प्रकार से परिवर्तित करने में सक्षम होने चाहिए। इसीलिए आज का संगणकविज्ञान सम्प्रेषणविज्ञान का अंग है और सम्प्रेषणविज्ञान की सम्प्रेषणीयता का लक्ष्य व्यवस्था में ही पूरा होता है। ठीक इसी सम्प्रेषणीय व्यवस्था को लक्ष्य में रखकर समवसरण के परकोटे में विभिन्न भाषिक वर्गों के लिए विभिन्न प्रकोष्ठों की व्यवस्था में ही भगवत् जिनेन्द्र की वाणी खिरती है, उसके बाहर/समवसरण के बाहर नहीं।
आज से लगभग सौ साल पहले समवसरण-सभा की इस धारणा को तथाकथित वैज्ञानिक आँख से देखने वाले या विचार करने वाले लोगों के द्वारा कपोल-कल्पना माना जाता था और टिप्पणी की जाती थी कि कहीं यह भी सम्भव है कि जहाँ वक्ता एक भाषा में बोल रहा हो और भिन्न-भिन्न भाषाओं के ग्रहीता अपनी-अपनी भाषा में उस कथन को सुन रहे हों, जैसी कि मान्यता है कि "जिनेन्द्र के सर्वांग से निगदित वाणी को सब अपनी-अपनी भाषा में सुन रहे होते हैं"-आज संगणक-वैज्ञानिकों ने उपर्युक्त सोच रखने वाले लोगों को मशीनी अनुवाद की धारणा देकर चुनौती ही नहीं दी है, बल्कि उन्हें एक करारा उत्तर भी दिया है। मशीनी अनुवाद के मूल में यह परिकल्पना है कि जिस दिन हम पूरी तरह मशीनी अनुवाद का तन्त्र विकसित कर लेंगे, उस दिन कोई भी संगणक (मशीन) उपलब्ध होगी, तो भी मशीन हमें किसी भी स्रोतभाषा से अपेक्षित लक्ष्यभाषा में उसका अनूदित रूप स्वत: उपलब्ध करा देगी। हमने अब तक मशीनी अनुवाद के जो तन्त्र विकसित किये हैं, उनमें इस दिशा में हमें बहुत-अंशों में सफलता भी मिली है। अब आगे हम मशीनी अनुवाद के वर्तमान में उपलब्ध तन्त्रों की कुछ मान्यताओं को लेकर इस चर्चा को कुछ और आगे बढ़ाएँगे।
सामान्य भाषा-प्रयोक्ता के भाषा-प्रयोग के पीछे उसके मन की. उसकी विवक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि विवक्षा के बिना भाषा मूर्त रूप ही नहीं ले सकती, यह भाषा-प्रयोक्ता के मन की विवक्षा ही है कि वह उसे भाषा-प्रयोग तक पहुँचाती है, इसलिए यहाँ तक कहा जाता है कि मन की विवक्षा के बिना भाषा-व्यवहार सम्भव ही नहीं है। भाषा-प्रयोग की यह प्रकृति एक लम्बे समय से मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में कार्य कर रहे संगणक-वैज्ञानिकों के लिए समस्या बनी रही है
और है कि भाषा-प्रयोग को कम्प्यूटर से सम्भव बनाने के लिये मानव-मन को, उसकी विवक्षा को कम्प्यूटर में कैसे ढाला जाए?...इस समस्या पर कार्य करनेवाला संगणकवैज्ञानिकों का एक वर्ग अब यह मानकर चल रहा है कि संगणक से भाषायी संसाधन (Language Processing) के लिए कम्प्यूटर में मन को ढालने (Impleament) की जरूरत ही नहीं है, वहीं दूसरा वर्ग मन को ढालने की बात की दिशा में आगे बढ़ने का
दिव्यध्वनि : कम्प्यूटर विज्ञान :: 667
For Private And Personal Use Only