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से घिरे हुए चन्द्रमा के देखने से यह जान पड़ता है कि पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान नहीं होगा। परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के देखने से यह सूचित होता है कि पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होंगे मेघों के आवरण से रुके हुए सूर्य के देखने से यह मालूम होता है कि पंचमकाल में प्राय: केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा। सूखा वृक्ष देखने से सूचित होता है कि स्त्रीपुरुषों का चरित्र भ्रष्ट हो जायेगा और जीर्ण पत्तों के देखने से मालूम होता है कि महाऔषधियों का रस नष्ट हो जाएगा। ऐसा फल देनेवाले इन स्वप्नों को तू दूर - विपाकी अर्थात् बहुत समय बाद फल देनेवाले समझ, इसलिए इनसे इस समय कोई दोष नहीं होगा, इनका फल पंचमकाल में होगा ।
आदिपुराण, 41/63.80
इसी प्रकार सम्राट् चन्द्रगुप्त के स्वप्न भी कुछ मिलते-जुलते हैं
एकदाऽसौ विशांनाथः प्रसुप्तः सुखनिद्रया । निशायाः पश्चिमे यामे वातपित्तकफातिगः ॥ इमान् षोडश दुःस्वप्नान् ददर्शाऽऽश्चर्यकारकान् । कल्पपादपशाखाया भङ्गमस्तमनं रवेः ॥ तृतीयं तितउप्रक्षमुद्यन्द विधुमण्डलम् । तुरीयं फणिनं स्वप्ने फणद्वादशमण्डितम् ॥ विमानं नाकिनां कम्रं व्यग्घुटन्तं विभासुरम्। कमलं तु कचारस्थ नृत्यन्तं भूतवृन्दकम्॥ खद्योतोद्योतभद्राक्षीत्प्रान्ते तुच्छजलं सरः । मध्ये शुष्कं हेमपात्रे शुनः क्षीरान्नभक्षणम् ॥ ज्ञास्त्रामृयं गजारुढमब्धिं कूलप्रलोपनम्। बाह्यमानं तथावत्सैर्भूरिभारभृतं रथम् ॥ राजपुत्रं मयारुढं रजसा पिहितं पुनः । रजराशि कनत्कान्तिं युद्धं चासितदन्तिनोः ॥
आचार्य श्री रत्ननन्दी, श्री भद्रबाहुचरित्र, 10.17 किसी समय महाराज चन्द्रगुप्त सुखनिद्रा में वात-पित्त-कफ आदि रहित (नीरोग अवस्था में) सोए हुये थे, उस समय रात्रि के पिछले पहर में आश्चर्यजनक नीचे लिखे सोलह खोटे स्वप्न देखे। वे ये हैं
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(1) कल्पवृक्ष की शाखा का टूटना, (2) सूर्य का अस्त होना, (3) चालीन के समान छिद्र सहित चन्द्रमण्डल का उदय, (4) बारह फणवाला सर्प, (5) पीछे लौटा हुआ देवताओं का मनोहर विमान, (6) अपवित्र स्थान पर उत्पन्न हुआ विकसित कमल, (7) नृत्य करता हुआ भूतों का परिकर, (8) खद्योत का प्रकाश, (9) अन्त में थोड़े से
प्रतीक दर्शन :: 679