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प्रयास कर रहा है । यहीं दिव्यध्वनि की यह मान्यता बड़े महत्त्व की है व उद्धरणीय है कि दिव्यध्वनि के लिए मन या विवक्षा का होना आवश्यक नहीं है। इसीलिए तो महापुराण में यह उल्लेख मिलता है कि - " भगवान् की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी" (विवक्षणामन्तरेणास्य विविक्तासीत् सरस्वती-महापुराण 24 / 84, 1/186)। मन के अभाव के सम्बन्ध में धवला में यह उल्लेख मिलता है कि उपचार से मन के द्वारा सत्य और अनुभय इन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है। (असतो मनसः कथं वचनद्वितय समुत्पत्तिरिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । - धवला 1 / 1, 1.50/284/ 2) तथा अर्हन्तपरमेष्ठी में मन के अभाव होने पर मन के कार्य रूप वचन की संभाव्यता के सन्दर्भ में धवला की मान्यता है कि वचन मन के कार्य नहीं हैं, बल्कि ज्ञान के कार्य हैं। (तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् ।
-धवला, 1/1, 1.112/368 / 3) इसीलिए यह आवश्यक है कि मशीनी अनुवाद की दिशा में कार्य कर रहे संगणक - वैज्ञानिकों को संगणक में मन को ढालने का प्रयास न करते हुए ज्ञानस्रोत के रूप में उसे विकसित करना चाहिए। अब यहीं एक शंका और मन में उठती है कि जब सामान्य भाषायी प्रयोग में मन की भूमिका है, तो मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में मन को क्यों न जोड़ा जाए ?... इसका समाधान यह है कि मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में निवेश्य सामग्री (Inputable Material) के रूप में भाषायी प्रयोग, जो अनूदित होना है, स्वयंप्राप्त होता है, जबकि सामान्य भाषायी सृजन में विचार या घटना निवेश्य सामग्री के रूप में प्राप्त होती है, और विचार या घटना को भाषायी रूप देने के लिए विवक्षा तथा मन की आवश्यकता होती है, जबकि मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया यान्त्रिक है, दूसरे - मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया के अनन्तर अनूदित रूप में प्राप्त होने वाले वचन ज्ञान का विषय बने वचनों का परिणाम होंगे, न कि मन का विषय हुए विचार या घटना का परिणाम, अतः यह स्पष्ट है कि मशीनी अनुवाद की प्रक्रिया में मन या विवक्षा की अपेक्षा नहीं है।
दिव्यध्वनि और संगणक - विज्ञान के कुछ समतुल्य बिन्दु और हैं कि जिस प्रकार समुचित दीक्षित गणधर के बिना दिव्यध्वनि नहीं खिरती है और गणधर महाराज द्विभाषि का काम करते हैं, ठीक वैसे ही संगणक के अनुप्रयोगों को सम्पादित करने के लिए हमें समुचित दीक्षित प्राकलनकर्ता (Programmer) की अपरिहार्य आवश्यकता होती है और वह समुचित दीक्षित प्राकलनकर्ता सामान्य प्रयोक्ताओं की आवश्यकताओं के सम्पादनार्थ माध्यम का कार्य करता है। जिसप्रकार दिव्यध्वनि अक्षर और अनक्षर उभय रूप होती है (अक्खराणक्खरप्पिया । कषायपाहुड 1/1/516/126/2) ठीक उसी प्रकार कम्प्यूटर की भाषा को विकसित करने के लिए इसके स्वरूप को अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक भी माना गया है। जिस प्रकार दिव्यध्वनि का प्रगटना विशिष्ट समय व
668 :: जैनधर्म परिचय
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