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है?...तथा ग्रहों का प्रभाव पृथ्वी स्थित प्राणियों पर कैसे पड़ता है? इत्यादि बातों का वेदों में वर्णन है।
जैनग्रन्थ सूर्यप्रज्ञप्ति, गर्गसंहिता, ज्योतिष्करण्डक इत्यादि में ज्योतिषशास्त्र की अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन किया गया है। जैन ज्योतिष के विद्वान गर्ग, ऋषिपुत्र और कालकाचार्य ने परम्परागत शशिचक्र का निरूपण किया है। मानव-जीवन और भारतीय ज्योतिष
समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है, यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदण्ड द्वारा मापता है। इसी अटल सिद्धान्त के अनुसार वह ज्योतिष को भी इसी दृष्टिकोण से देखता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है, इसका कभी नाश नहीं होता है। अध्ययन शास्त्र का कथन है कि दृश्य सृष्टि केवल नाम, रूप और कर्म नहीं है, किन्तु इस नामरूपक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्म-तत्त्व है तथा प्राणिमात्र के शरीर में रहनेवाला यह तत्त्व नित्य एवं चैतन्य है, केवल कर्मबन्ध के कारण वह परतन्त्र और विनाशीक दिखलाई पड़ता है।
वैदिक दर्शनों में कर्म के-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद माने गये हैं।
संचित कर्म-किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया, जो कर्म है-चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्मों में, यह-सब संचित कहलाता है।
अनेक जन्म-जन्मान्तरों के संचित-कर्मों को एक-साथ भोगना सम्भव नहीं है; क्योंकि इनसे मिलनेवाले परिणामस्वरूप फल परस्पर-विरोधी हैं, अतः इन्हें एक के बाद एक भोगना पड़ता है। __ प्रारब्ध कर्म- संचित में से जितने कर्मों के फल को पहले भोगना शुरू होता है, उतने को ही प्रारब्ध कहते हैं। __तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात् समस्त जन्म-जन्मान्तर के संग्रह में से एक छोटे से भेद को प्रारब्ध कहते हैं।
क्रियमाण कर्म- जो कर्म अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण कर्म है।
इस प्रकार इन तीन कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मों/पर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है।
आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण लिंगशरीर, कार्माण शरीर और भौतिक स्थूल-शरीर का सम्बन्ध है।
जब एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीर का त्याग करता है, तो लिंग-शरीर
652 :: जैनधर्म परिचय
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