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अन्तर्गत एक पूर्वगत नाम का जो भेद है, उसके भी चौदह भेद हैं । पूर्वगत के उन चौदह भेदों में बारहवाँ भेद 'प्राणावाय' के नाम से कहा गया है। इस प्राणावाय पूर्व के अन्तर्गत ही अष्टांग आयुर्वेद का कथन है। जैनाचार्यों के अनुसार यह प्राणावाय पूर्व ही वैद्यक शास्त्र या आयुर्वेद विद्या का मूल है। इस प्राणावाय पूर्व के अनुसार अथवा इसके आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने वैद्यक सम्बन्धी अन्यान्य ग्रन्थों की रचना की । श्री वीरसेनाचार्य ने 'कसायपाहुड' की जयधवला टीका में द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत 'प्राणावाय पूर्व' की व्याख्या निम्न प्रकार से की है
" प्राणावायपवादो दसविहपाणाणं हाणि - बइढीओ वण्णेदि । होदु आउअपाणस्स हाणी आहारणिरोहादिसमुब्भूदकयलीघादेण, ण पुन वड्ढी, अहिणवदिठदिबंधवड्ढीए विणा उक्कइढणाए ट्ठिदिसंतवइढीए अभावादो। ण एस दोसो, अट्ठहि आगारि साहि आउअं बंधमाणजीवाणमाउअपाणस्स बढिदंसणादो । करितुरय - णरायि-संबंद्धमंट्ठगमाउवेयं भदित्ति वृत्तं होदि । वुच्चदे - शालाक्यं कायचिकित्सा भूततंत्रं शलयमगदतंत्रं रसायनतंत्रं बालरक्षा बीजवर्द्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टांगानि । "
अर्थात् प्राणावायप्रवाद नाम का पूर्व दस प्रकार के प्राणों की हानि और वृद्धि का वर्णन करता है (पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्रकार के प्राण होते हैं) । आहार निरोध आदि कारणों से उत्पन्न हुए कदलीघात मरण के निमित्त
भले ही आयु प्राण की हानि हो जावे, परन्तु आयु प्राण की वृद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि नवीन स्थितिबन्ध की वृद्धि हुए बिना उत्कर्षण के द्वारा केवल सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति की वृद्धि नहीं हो सकती है, यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि आठ अपकर्षों के द्वारा आयुकर्म का बन्ध करने वाले जीवों के आयुप्राण की वृद्धि देखी जाती है। यह (प्राणावायप्रवाद पूर्व) हाथी, घोड़ा, मनुष्य आदि से सम्बन्ध रखने वाले अष्टांग आयुर्वेद का कथन है। आयुर्वेद के आठ अंग कौन से हैं? बतलाते हैं - शालाक्य, कायचिकित्सा, भूततन्त्र, शल्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र, बालरक्षा और बीजवर्धन ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं ।
राजवार्तिक में प्राणावाय का स्वरूप निम्न प्रकार से उल्लिखित है“कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदः भूतिकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितः तत्प्राणावायम् ।'
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अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तारपूर्वक हो, पृथ्वी आदि महाभूतों की क्रिया, विषैले प्राणियों और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राण - अपान का विभाग जिसमें विस्तारपूर्वक वर्णित हो, वह " प्राणावाय" है ।
आशय का ऐसा ही कथन गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) की कर्नाटक वृत्ति में निम्न प्रकार से किया गया है
622 :: जैनधर्म परिचय
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