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पुष्पायुर्वेद
आचार्य समन्तभद्र ने इसमें 18000 प्रकार के पराग-रहित पुष्पों से निर्मित रसायनौषधिप्रयोगों के विषय में बताया है। वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने लिखा है-"इस पुष्पायुर्वेद ग्रन्थ में क्रि.पू.3 रे शतमान की कर्णाटक की लिपि उपलब्ध होती है, जो-कि बहुत मुश्किल से वाँचने में आती है। इतिहास संशोधकों के लिए यह एक अपूर्व व उपयोगी विषय है। अठारह हजार जाति के केवल पुष्पों का ही जिसमें कथन हो, उस ग्रन्थ का महत्त्व कितना होगा यह भी पाठक विचार करें। अभी तक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यों के सिवाय और किसी ने भी नहीं किया है। आयुर्वेद संसार में यह एक अद्भुत चीज है।"13
इनके विस्तृत परिचय के लिए जैनाचार्यों का इतिहास देखना चाहिए। श्री समन्त भद्र और उनके ग्रन्थ 'सिद्धान्तरसायनकल्प' में निहित प्रयोगों और उनकी निर्माणप्रक्रिया से स्पष्ट है कि रसविद्या का पर्याप्त विकास विक्रम की द्वितीय शताब्दी में दक्षिण भारत में हो चुका था। किन्तु आयुर्वेद के वर्तमान रसशास्त्र के अध्येताओं एवं विद्वानों को इसकी जानकारी नहीं होने से रसशास्त्र के विकास का यह काल विक्रम की द्वितीय शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक अन्धकारावृत रहा।
श्रीपूज्यपाद (देवनन्दि) (464-524 ई.)
श्री पूज्यपाद स्वामी ने 'कल्याणकारक' नामक वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इस तथ्य की पुष्टि कर्नाटक (कन्नड़) भाषा एवं संस्कृति के मनीषी विद्वान जैनाचार्य जगद्दल सोमनाथ ने भी की है। उन्होंने भी पूज्यपाद स्वामी द्वारा लिखित कल्याणकारक ग्रन्थ का कर्नाटक भाषा में भाषानुवाद कर उसे कन्नड़ लिपि में लिप्यन्तरित किया था। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ कितना महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पीठिका प्रकरण, परिभाषा प्रकरण, षोडश ज्वर-चिकित्सा-निरूपण आदि अष्टांग से संयुक्त हैं। कन्नड़ भाषा के वैद्यक ग्रन्थों में यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्राचीन एवं व्यवस्थित है। पूज्यपाद स्वामी
और उनके कल्याणकारक ग्रन्थ की चर्चा करते हुए एक स्थान पर आचार्य जगद्दल सोमनाथ ने स्पष्ट किया है
सुकरं तानेने पूज्यपाददमुनिगल मुंपेलद कल्याणकारकम् वाहटसिद्धसारचरकाद्युत्कृष्टतमं सदगुणाधिकम वर्जित मद्यमांसमधुंव कणीरंदि लोकरक्षकमा
चित्रमदागे चित्रकवि सोमं पेल्दनि तलितयिं ।।4 आचार्य विजयण्ण उपाध्याय द्वारा लिखित (संकलित) 'सार-संग्रह' नामक एक
आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 631
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