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में उल्लिखित निम्न श्लोकों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ का नाम ' सारसंग्रह ' है और इसके कर्ता श्रीमद्विजयण्णोपाध्याय हैं
नमः श्री वर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । कल्याणकारको ग्रन्थ पूज्यपादेन भाषितः ।। सर्वलोकोपकारार्थं कथ्यते सारसंग्रहः । श्रीमद्वाग्भट्टसुश्रुतादिविमल श्री वैद्यशास्त्रार्णवे । भास्वतसुसारसंग्रहमहाभामान्विते संग्रहे ।।
मन्त्रज्ञैरपरपलाल्यसद्विजयण्णोपाध्यायसन्निर्मिते । ग्रन्थेऽस्मिन्मधुपाकसारविचये पूर्णो भवेन्मंगलम् ।।
आयुर्वेदाचार्य श्री पं. विमल कुमार जैन का भी कहना है कि बुन्देलखण्ड में भी मुझे इसकी एक दो प्रतियाँ दृष्टिगोचर हुई हैं और उन प्रतियों में इसका नाम 'सारसंग्रह ' ही मिलता है। बल्कि उन्होंने इस ग्रन्थ को आद्योपान्त देखकर बतलाया है कि इसमें पृष्ठ 1 से 5 तक समन्तभद्र के रस- प्रकरण सम्बन्धी कुछ पद्य, पृष्ठ 6 से 32 तक पूज्यपादोक्त रस, चूर्ण, नाड़ी परीक्षा एवं ज्वर निदान आदि कुछ भाग हैं। इनके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न प्रकरण में सुश्रुत, वाग्भट, हारीत मुनि एवं रुद्रदेव आदि वैद्याचार्यों के भी मत मिलते हैं । इस ग्रन्थ के पृष्ठ 3 से उद्धृत कर जो मंगलाचरण ऊपर दिया गया है, वह श्री समन्तभद्राचार्य के 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में विहित मंगलाचरण के पद्य काही पूर्वार्ध है । इसका केवल उत्तरार्ध ग्रन्थ के संग्रहकर्ता विजयण्ण द्वारा कृत है। इस ग्रन्थ में प्रशस्ति भाग नहीं होने से इसका काल निर्धारण सम्भव नहीं है । लेखक ने न तो स्वयं के विषय में कुछ लिखा है और न ही ग्रन्थ- निर्माण के समय आदि के विषय में उल्लेख किया है। इससे इसके समय का निश्चय करने में कठिनाई है । फिर भी जिन आचार्यों को इस ग्रन्थ में उद्धृत किया गया है, उनके बाद ही इस ग्रन्थ का निर्माण (संग्रह) हुआ होगा, यह स्पष्ट है ।
श्री अनन्तदेव सूरिकृत रस - चिन्तामणि
यह ग्रन्थ संवत् 1967 शके 1982 में श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित हुआ था। जो अब अनुपलब्ध है। इसकी प्रतियाँ अब भी यत्र तत्र पुस्तकालयों में मिल जाती हैं। इसकी भाषा टीका राजवैद्य पं. मुरलीधर शर्मा द्वारा की गयी है । प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में वे लिखते हैं कि रस- चिकित्सा के ग्रन्थ बहुत हैं, परन्तु कुष्ठ अर्श आदि महाव्याधियों को नष्ट करने में जैसे सहज और चमत्कारी अद्भुत सिद्ध-प्रयोग इस रस चिन्तामणि में है, वैसे किसी भी ग्रन्थ में नहीं देखे जाते। इसके अतिरिक्त धातुक्रिया भी इसमें बहुत चमत्कारी लिखी है और वेध विधि ( धातुरंजन) के जो प्रयोग इसमें
640 :: जैनधर्म परिचय
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