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लिखे हैं, वे तो भाग्य ही से किसी को सिद्ध होते होंगे। न अब पहले का समय है, न अब उसके उपकरण हैं, न क्रिया है। इससे वे सिद्ध न भी हों तो आश्चर्य नहीं। इसी से हर-एक मनुष्य को इसी ओर विशेष ध्यान न देकर इस ग्रन्थ के अन्य चमत्कारी सिद्ध प्रयोगों से लाभ उठाना उचित है।
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्यारह स्तबकों, जो अध्याय के द्योतक हैं, में विभाजित है। इसमें आद्योपान्त कुल श्लोक संख्या 1682 है।
ग्रन्थ के प्रथम स्तबक में मंगलाचरण एवं निर्देश के पश्चात् 20 प्रकार की रसभस्म-विधि वर्णित है। अनन्तर खेचरी गुटिका और गंधक ग्रास विधि का उल्लेख है। इसमें श्लोकों का प्रमाण 120 है। द्वितीय स्तबक रसक्रिया प्रकरण के नाम से उल्लिखित है, जिसमें 17 योगों की निर्माण-विधि एवं उनके गुण-धर्म का उल्लेख है। इसमें कुल श्लोक संख्या 142 है। तृतीय स्तबक में 21 रसयोगों की निर्माण विधि 98 श्लोकों में प्रतिपादित है। चतुर्थ स्तबक में 128 श्लोकों में 24 योगों का उल्लेख है। पंचम स्तबक में रसमर्दन, स्वेदन, मूर्च्छन, अध:पातन, ऊर्ध्वपातन, नियामन, निरोधन आदि क्रिया विधियाँ तथा द्रव्यों की सत्त्वपातन आदि 31 विधियाँ वर्णित हैं। इनमें कुल श्लोक 162 हैं। षष्ट स्तबक में स्वर्णकरण की 8 और रौप्यकरण की 11 विधियाँ वर्णित हैं। इसके श्लोकों का परिमाण 145 है। सप्तम स्तबक में विभिन्न महत्त्वपूर्ण 18 रसयोगों का वर्णन है, जो 213 श्लोकों के अन्तर्गत प्रतिपादित है। अष्टम स्तबक में विभिन्न 16 रसयोग हैं, और श्लोकों का प्रमाण 182 है। नवम स्तबक में 198 श्लोकों में 41 योगों का वर्णन किया गया है। दशम स्तबक में 45 श्लोक में 13 योग बतलाए गये हैं। एकादश स्तबक में कुल श्लोक 138 हैं, जिसमें 33 योगों का उल्लेख है। श्री गुणाकर कृत योगरत्नमालावृत्ति
आयुर्वेद में रस-चिकित्सा के प्रवर्तक रससिद्ध आचार्य नागार्जुन ने योगरत्नमाला नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ पर गुणाकर ने एक वृत्ति लिखी है, जो गुणाकर विवृत्ति के नाम से विख्यात है। श्री गुणाकर श्वेताम्बर जैन विद्वान थे और उनकी विद्वत्ता की पर्याप्त छाप उनके द्वारा रचित विवृत्ति पर पड़ी है। वे एक सुयोग्य वैद्य एवं सिद्धहस्त चिकित्सक भी थे। अपने चिकित्सा कार्य में रसयोगों का प्रयोग वे अधिकतर करते थे। पिटर्सन रिपोर्ट 2, एपेण्डिक्स पृ. 330 और रिपोर्ट 4, पृ. 26 पर दी गयी जानकारी के अनुसार नागार्जुन ने योगरत्नमाला नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। उस पर गुणाकर सूरि ने वि.सं. 1296 में वृत्ति लिखी है। इसके अनुसार यह रचना तेरहवीं शताब्दी की प्रमाणित होती है। इस वृत्ति का उल्लेख 'ए चैकलिस्ट ऑफ संस्कृत मेडिकल मेनुस्क्रिप्ट इन इण्डिया' में क्रं. संख्या 1057 पर किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि इस वृत्ति की एक प्रति भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान, पूना में 175 पर उपलब्ध है।
आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 641
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