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श्री मेरुतंग सूरि द्वारा रसाध्याय पर कृत टीका
यह ग्रन्थ आचार्य कंकालीय द्वारा रचित है, जो एक जैन विद्वान हैं। इस ग्रन्थ पर जैन विद्वान श्री मेरुतंग सूरि (मेरुतंग जैन) द्वारा विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी गयी है। श्री मेरुतंग सूरि अंकाला गच्छ के श्री महेन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य थे। इस ग्रन्थ को 'श्री जिनरत्नकोश' में पृष्ठ 328 पर उद्धृत किया गया है, जिसके अनुसार श्री मेरुतंग सूरि द्वारा इस पर सं. 1443 में टीका लिखी गयी थी। श्री प्रियव्रत शर्मा ने इस ग्रन्थ को अपने आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास नामक ग्रन्थ में उद्धृत किया है। उनके अनुसार श्री मेरुतंग जैन ने इस पर 1386 ई. सन् में टीका लिखी थी। यह ग्रन्थ चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है, किन्तु वर्तमान में अप्राप्य है। सोमप्रभाचार्य कृत 'रस-प्रयोग' ___ 'रस-प्रयोग' नाम के ग्रन्थ का उल्लेख श्री अम्बालाल पी. शाह ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 5 में किया है, किन्तु उसमें विस्तृत विवरण नहीं दिया गया है। इस ग्रन्थ के रचयिता श्री सोमप्रभाचार्य हैं। ग्रन्थकर्ता के विषय में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। __'श्री जिनरत्नकोश' में भी यह ग्रन्थ उद्धृत है, जिसके अनुसार चिकित्सा विषय पर यह ग्रन्थ सोमप्रभाचार्य द्वारा लिखित है। श्रीजिनरत्नकोश के अनुसार यह ग्रन्थ सोमप्रभाचार्य द्वारा लिखित है। श्री जिन रत्नकोश के अनुसार यह ग्रन्थ। 'A list of manuscript in the Jain Bhandar at Humbacchakatte, Distt. Shimoga, Mysore में क्र. संख्या 125 पर उल्लिखित है। इसी आधार पर इसे 'श्रीजिनरत्नकोश' में उद्धृत है। इससे प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ की प्रति हम्बुक्का कट्टे जिलाशिवमोगा (मैसूर) के जैन भण्डार में विद्यमान है। माणिक्यदेव कृत 'रसावतार'
यह ग्रन्थ माणिक्यदेव द्वारा रचित है। कहीं-कहीं ग्रन्थकर्ता का नाम माणिक्यचन्द्र उद्धृत किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता दोनों के विषय में कोई विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होने से इस पर प्रकाश डालना सम्भव नहीं है। इस ग्रन्थ का उल्लेख आयुर्वेद के इतिहासज्ञों ने भी अपनी कृतियों में किया है। 'रसयोगसागर' नामक एक ग्रन्थ में इस ग्रन्थ के अनेक योग उद्धृत हैं। 'श्रीजिनरत्नकोश' में भी पृ. 328 पर इस ग्रन्थ का उल्लेख है। इसकी एक प्रति श्री यादव श्री त्रिकम जी आचार्य के पास भी थी, जो उन्होंने श्री हरिप्रसन्न जी शास्त्री को अपने ग्रन्थ 'रसयोगसागर' के निर्माणार्थ दी थी, जो बाद में कार्य पूरा होने के पश्चात् लौटा दी गयी थी, किन्तु उसके पश्चात् उसका कोई अता-पता नहीं है। 642 :: जैनधर्म परिचय
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