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अशुचिकर, मादक और अशोभनीय माना जाता है। आसव अरिष्ट का प्रयोग तो कल्याणकारक में आता है, जैसे-प्रमेहरोगाधिकार में आमलकारिष्ट आदि। आयुर्वेद के प्राचीन संहिता ग्रन्थों में मद्य, मांस और मधु का भरपूर व्यवहार किया गया है। चरक आदि में मांस और मांसरास से सम्बन्धित अनेक चिकित्साप्रयोग दिये गये हैं। मद्य को अग्निदीप्तिकर और आशुप्रभावशाली मानते हुए अनेक रोगों में इनका विधान किया गया है। राजयक्ष्मा जैसे रोगों में तो मांस और मद्य की विपुल गुणकारिता स्वीकार की गयी है। मधु अनुपान और सहपान के रूप में अनेक औषधियों के साथ प्रयुक्त होता है तथा मधूदक, मध्वासव आदि का पानार्थ व्यवहार वर्णित है। चिकित्सा में वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों के प्रयोग वर्णित हैं। वानस्पतिक द्रव्यों से निर्मित स्वरस, क्वाथ, कल्क, चूर्ण, वटी, आसव-अरिष्ट, घृत और तेल की कल्पनाएँ दी गयी हैं। क्षार निर्माण और क्षार का स्थानीय और आभ्यन्तर प्रयोग भी बताया गया है। अग्निकर्म, सिरावेध और जलौकावचारण का विधान भी है। अनेक प्रकार के खनिज द्रव्यों का औषधीय प्रयोग कल्याणकारक में मिलता है। यदि इस ग्रन्थ का रचनाकाल 8वीं शती सही है, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि रस (पारद) और रसकर्म (पारद का मूर्च्छन, मारण
और बन्ध, इस प्रकार विविध कर्म, रससंस्कार, रस-प्रयोग) का प्राचीनतम प्रामाणिक उल्लेख हमें इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इस पर एक स्वतन्त्र अध्याय ग्रन्थ के 'उत्तरतन्त्र' में 24वाँ परिच्छेद 'रसरसायनविध्यधिकार' के नाम से दिया गया है। कुल 56 पद्यों में पारद सम्बन्धी 'रसशास्त्रीय' समस्त विधान वर्णित है।
जैन सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए कल्याणकारक में सब रोगों का कारण पूर्वकृत 'कर्म' माना गया है।
5.
श्री विजयण्ण उपाध्याय कृत 'सारसंग्रह'
इस ग्रन्थ की एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन, आरा में विद्यमान है, जिसका ग्रन्थ नं. 255 ख है। इस ग्रन्थ का उल्लेख श्री पं. के. भुजबली शास्त्री द्वारा सम्पादित (लिखित) प्रशस्ति संग्रह तथा जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-6, किरण-2 में प्रशस्ति संग्रह के अन्तर्गत किया गया है। श्री पं. के. भुजबली शास्त्री द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार यह ग्रन्थ राजकीय प्राच्य पुस्तकागार, मैसूर से लिपिबद्ध कराया गया है। वहाँ की मुद्रित ग्रन्थ तालिका में ग्रन्थ का नाम 'अकलंक संहिता' और कर्ता का नाम अकलंक भट्ट लिखा मिलता है। किन्तु इसका कोई आधार नजर नहीं आता है। ग्रन्थ
आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 639
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