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है। ऐसे शास्त्र को प्राप्त कर मनुष्य सुख प्राप्त करता है। ___ "जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यह शास्त्र विभिन्न छन्दों (वृत्तों) में रचित प्रमाण, नय
और निक्षेपों का विचार कर सार्थक रूप से 'दो हजार पाँच सौ तैरासी छन्दों' में रचा या है और जब तक सूर्य, चन्द्र और तारे मौजूद हैं, तब तक प्राणियों के लिए सुखसाधक बना रहेगा।" _ 'प्राणावाय' का प्रतिपादक होने का प्रमाण देते हुए उग्रादित्य ने कल्याणकारक में प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में लिखा है
"जिसमें सम्पूर्ण द्रव्य, तत्त्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, जिसके इहलोक और परलोक के लिए प्रयोजनभूत अर्थात् साधनरूपी दो सुन्दर तट हैं, ऐसे जिनेन्द्र के मुख से बाहर निकले हुए शास्त्ररूपी सागर की एक बून्द के समान यह शास्त्र (ग्रन्थ) है। यह जगत् का एक मात्र हितसाधक है (अतः इसका नाम 'कल्याणकारक' है)। ___ 'कल्याणकारक' के प्रारम्भिक भाग (प्रथम परिच्छेद के आरम्भ के दस पद्यों में) आचार्य उग्रादित्य ने मर्त्यलोक के लिए जिनेन्द्र के मुख से आयुर्वेद (प्राणावाय) के प्रकटित होने का कथानक इस प्रकार प्रतिपादित किया है___ भगवान् ऋभषदेव प्रथम तीर्थंकर थे। उनके समवसरण में भरत चक्रवर्ती आदि ने पहुँच कर लोगों के रोगों को दूर करने और स्वास्थ्यरक्षण का उपाय पूछा। तब प्रमुख गणधरों को उपदेश देते हुए भगवान् ऋषभदेव के मुख से सरस शारदादेवी बाहर प्रकटित हुई। उनकी वाणी में पहले पुरुष, रोग, औषध और काल-इस प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र के चार भेद बतलाते हुए इन वस्तुचतुष्टयों के लक्षण, भेद, प्रभेद आदि सब बातों को बताया गया। इन सब तत्त्वों को साक्षात् रूप से 'गणधर' ने समझा। गणधरों द्वारा प्रतिपादित शास्त्र को निर्मल मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यय ज्ञान को धारण करने वाले योगियों ने जाना।
इस प्रकार यह सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र ऋषभनाथ तीर्थंकर के बाद महावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों तक अविरल चला आया। यह अत्यन्त विस्तृत है, दोषरहित है, गम्भीर वस्तु-विवेचन से युक्त है। तीर्थंकर के मुख से निकला हुआ यह ज्ञान 'स्वयंभू' है और अनादिकाल से चला आने के कारण 'सनातन' है। गोवर्धन, भद्रबाहु आदि श्रुतकेवलियों के मुख से अल्पांग ज्ञानी या अंगांग ज्ञानी चार मुनियों के द्वारा साक्षात् सुना हुआ है अर्थात् श्रुतकेवलियों ने अन्य मुनियों को इस ज्ञान को दिया था।"
इस प्रकार प्राणावाय (आयुर्वेद) सम्बन्धी ज्ञान मूलतः तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित है, अतः यह 'आगम' है। उनसे इसे गणधर, प्रतिगणधरों ने, उनसे श्रुतकेवली और उनसे बाद में होने वाले अन्य मुनियों ने क्रमशः प्राप्त किया।
इस तरह परम्परा से चले आ रहे इस शास्त्र की सामग्री को गुरु श्रीनन्दि से सीखकर उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' ग्रन्थ की रचना की। अतः कल्याणकारक परम्परागत ज्ञान के आधार पर रचित शास्त्र है।"
आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 637
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