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ग्रन्थगत विशेषताएँ
प्राणावाय-परम्परा का उल्लेख करने वाला यह एकमात्र ग्रन्थ उपलब्ध है। सम्भवतः इसके पूर्व और पश्चात् का एतद्विषयक साहित्य कालकवलित हो चुका है। इसमें 'प्राणावाय' की दिगम्बर-सम्मत परम्परा दी गयी है। अपने पूर्वाचार्यों के रूप में तथा जिन ग्रन्थों को आधारभूत स्वीकार किया गया है, उनके प्रणेताओं के रूप में उग्रादित्य ने जिन मुनियों और आचार्यों का उल्लेख किया है, वे सभी दिगम्बर परम्परा के हैं। अतः यह निश्चित रूप से कह सकना सम्भव नहीं है कि इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परा और उसके आचार्य कौन थे?... फिर भी ग्रन्थ की प्राचीनता (8 वीं शती में . निर्माण होना) और रचनाशैली व विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए कल्याणकारक का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से जो विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, वे निम्न हैं1. ग्रन्थ के उपक्रम भाग में आयुर्वेद के अवतरण अर्थात् मर्त्यलोक में आयुर्वेद
(प्राणावाय) की परम्परा का जो निरूपण किया गया है, वह सर्वथा नवीन है। इस प्रकार के अवतरण सम्बन्धी कथानक आयुर्वेद के अन्य प्रचलित एवं आर्ष शास्त्र-ग्रन्थों जैसे चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, काश्यपसंहिता, अष्टांगसंग्रह आदि में प्राप्त नहीं होते। कल्याणकारक का वर्णन 'प्राणावाय' परम्परा का सूचक है अर्थात् 'प्राणावाय' संज्ञक आगम का अवतरण तीर्थंकरों की वाणी में होकर जनसामान्य तक पहुँचा-इस ऐतिहासिक परम्परा का इनमें वर्णन है। 'प्राणावाय' परम्परा में ज्ञान का मूल तीर्थंकरों की वाणी को माना गया है। यह परम्परा इस प्रकार चलती है
तीर्थंकरों की वाणी (आगम)
गणधर और प्रतिगणधर
श्रुतकेवली
बाद में ऋषि - मुनि 2. कल्याणकारक में कहीं भी चिकित्सा में मद्य, मांस और मधु का प्रयोग नहीं
बताया गया है। जैन मतानुसार ये तीनों वस्तुएँ असेव्य हैं : मांस और मधु के प्रयोग में जीव-हिंसा का विचार भी किया जाता है। मद्य जीवन के लिए
638 :: जैनधर्म परिचय
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