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ग्रन्थों की कुल संख्या डॉ. के.एच. त्रिवेदी ने 47 स्वीकार की है Po नाट्यदर्पण : यह नाट्य विषयक प्रामाणिक एवं मौलिक ग्रन्थ है। इसमें महाकवि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अनेक नवीन तथ्यों का समावेश किया है। आचार्य भरत से लेकर धनंजय तक चली आ रही नाट्यशास्त्र की अक्षुण्ण परम्परा का युक्ति-पूर्ण विवेचन करते हुए आचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्वाचार्य स्वीकृत नाटिका के साथ प्रकरणिका नाम की एक नवीन विधा का संयोजन कर द्वादश-रूपकों की स्थापना की है। इसी प्रकार रस की सुख-दुःखात्मकता स्वीकार करना- इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है। नाट्यदर्पण में नौ रसों के अतिरिक्त तृष्णा, आर्द्रता, आसक्ति, अरति और सन्तोष को स्थायीभाव मानकर क्रमशः लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख और सुख-रस की भी सम्भावना की गयी है। इसमें शान्त-रस का स्थायीभाव शम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ऐसे अनेक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जो अद्यावधि अनुपलब्ध है। कारिका रूप में निबद्ध किसी भी गूढ़ विषय को अपनी स्वोपज्ञ विवृति में इतने स्पष्ट और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है कि साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति को भी विषय समझने में कठिनाई का अनुभव नहीं करना पड़ता है। इसीलिए इस ग्रन्थ की कतिपय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है कि नाट्य विषयक शास्त्रीय ग्रन्थों में 'नाट्यदर्पण' का स्थान महत्त्वपूर्ण है। यह वह श्रृंखला है, जो धनंजय के साथ विश्वनाथ कविराज को जोड़ती है। इसमें अनेक विषय बड़े महत्त्वपूर्ण हैं तथा परम्परागत सिद्धान्तों से विलक्षण हैं, जैसे रस का सुखात्मक होने के अतिरिक्त दुःखात्मक रूप। इसके अतिरिक्त आचार्य उपाध्याय ने प्राचीन और अधुना लुप्तप्राय रूपकों के उद्धरण प्रस्तुत करने के कारण इसका ऐतिहासिक मूल्य भी स्वीकार किया है। इन सब विशेषताओं के कारण नाट्यदर्पण अनुपम एवं उत्कृष्ट कोटि का ग्रन्थ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में दो भाग पाये जाते हैं-प्रथम कारिकाबद्ध मूलग्रन्थ और द्वितीय उसके ऊपर लिखी गयी स्वोपज्ञ विवृति। कारिकाओं में ग्रन्थ का लाक्षणिक भाग निबद्ध है तथा विवृति में तद्विषयक उदाहरण एवं कारिका का स्पष्टीकरण। यह ग्रन्थ चार विवेकों में विभाजित किया गया है। नरेन्द्रप्रभसूरि ___ नरेन्द्रप्रभसूरि हर्षपुरीय गच्छ-परम्परा के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम नरचन्द्रसूरि और दादा-गुरु का नाम देवप्रभसूरि था। गुरु नरचन्द्रसूरि न्याय, व्याकरण, साहित्य और ज्योतिष् के प्रकाण्ड विद्वान् थे, जिसकी पुष्टि उक्त विषयों पर लिखे गये उनके ग्रन्थों और टिप्पणियों से होती है।
गुरु के आदेशानुसार नरेन्द्रप्रभसूरि ने 'अलंकार-महोदधि' नामक ग्रन्थ की रचना
608 :: जैनधर्म परिचय
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