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कि विनयचन्द्र की कवि (काव्य) शिक्षा इसलिए विशेष उपयोगी है कि उसमें इतिहास, भूगोल और मध्यकालीन भारत की साहित्यिक स्थिति की अनेक सूचनाएँ मिलती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न आचार्यों के विभिन्न ग्रन्थों का उपयोग किया गया है, जिनमें कालिदास, बाण, भवभूति और हेमचन्द्र आदि के ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। यह छः परिच्छेदों में विभक्त है।
विजयवर्णी __विजयवर्णी दिगम्बर जैन मुनि विजयकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने राजा कामिराज की प्रार्थना पर शृंगारार्णव चन्द्रिका नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें इन्होंने कर्नाटक के सुप्रसिद्ध कवि गुणवर्मा का नामोल्लेख किया है। गुणवर्मा का समय ई. सन् 1225 (वि.सं. 1282) के लगभग माना जाता है। अतः विजयवर्णी का समय ईसा की 13वीं शताब्दी का मध्य भाग मानना समीचीन होगा।
विजयवर्णी द्वारा रचित अलंकार-विषयक शृंगारार्णव-चन्द्रिका नामक ग्रन्थ के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, किन्तु उक्त ग्रन्थ के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि विजयवर्णी एक राजमान्य महाकवि थे। सम्भव है कि इन्होंने अन्य ग्रन्थों का भी प्रणयन किया हो, किन्तु इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध न होने से निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। शृंगारार्णवचन्द्रिका : इसमें विजयवर्णी ने कुछ ऐसे विषयों का भी समावेश किया है, जिनका उल्लेख अलंकारशास्त्रों में प्रायः कम ही मिलता है। जैसे वर्ण-गण-फल निर्णय आदि। जिस प्रकार एकावली, प्रतापरुद्रयशोभूषण और रसगंगाधर में कवियों ने स्वरचित पद्यों का प्रयोग किया है, उसी प्रकार विजयवर्णी ने 'शृंगारार्णवचन्द्रिका' में सभी उदाहरण स्व-रचित प्रस्तुत किये हैं। ये सभी उदाहरण कवि ने अपने आश्रयदाता गंगवंशीय राजा कामिराज की स्तुति में लिखे हैं, अत: इस ग्रन्थ का अपर नाम 'कामिराज स्तुति' ग्रन्थ कहा जाये, तो अत्युक्ति न होगी। प्रस्तुत ग्रन्थ दस परिच्छेदों में विभक्त
अजितसेन
जैन परम्परा में अजितसेन नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत आलंकारिक दिगम्बर सम्प्रदाय के जैनाचार्य थे। अलंकारशास्त्र पर रचित उनकी 'अलंकार-चिन्तामणि' नामक कृति इस बात का सबल प्रमाण है कि उन्हें अलंकार-शास्त्र का तलस्पर्शी ज्ञान
था।
यद्यपि आलंकारिक अजितसेन की गुरु-परम्परा आदि के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट
612 :: जैनधर्म परिचय
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