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परम्परा से प्राप्त हैं, किन्तु अलंकार-चिन्तामणि में प्राय: नवीन उदाहरणों का चयन किया गया है, जो लेखक के अथक परिश्रम के द्योतक हैं। सभी उदाहरण पुराणों और स्तोत्रों से गृहीत होने के कारण लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ को स्तोत्रग्रन्थ की संज्ञा से विभूषित किया है। इसमें अन्य आचार्यों के मतों को भी यत्र-तत्र स्थान दिया गया है।
वाग्भट-द्वितीय
वाग्भट-द्वितीय का समय विक्रम की 14वीं शताब्दी है। ये मेदपाट (मेवाड) निवासी नेमिकुमार के पुत्र और मवकलप तथा महादेवी के पौत्र थे। इनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम श्रीराहड था, जिनके प्रति वाग्भट को अगाध श्रद्धा थी। इनके पिता नेमिकुमार ने अपने द्वारा उपार्जित द्रव्य से राहडपुर में उतुंग शिखर वाला भगवान् नेमिनाथ एवं नलोटकपुर में 22 देवकुलिकाओं से युक्त आदिनाथ का मन्दिर बनवाया था।
आचार्य वाग्भट-द्वितीय ने अनेक नवीन और सुन्दर नाटकों एवं महाकाव्यों के अतिरिक्त छन्द तथा अलंकार-विषयक ग्रन्थों का निर्माण किया है। काव्यानुशासन के अतिरिक्त उनकी दो अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध हैं- (1) ऋषभदेवचरित महाकाव्य
और (2) छन्दोऽनुशासन। जिनका उल्लेख काव्यानुशासन (पृ. 15, 20 क्रमश:) में मिलता है। इनका विषय-विवेचन नाम से ही स्पष्ट है। काव्यानुशासन : काव्यानुशासन महाकवि वाग्भट-द्वितीय का अलंकार-विषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना सूत्र-शैली में की गयी है। इस पर उन्होंने अलंकार-तिलक नामक स्वोपज्ञवृत्ति की भी रचना की है, जिससे विषय को समझने में सहायता मिलती है। इस पर हेमचन्द्रकृत काव्यानुशासन की छाया स्पष्ट प्रतीत होती है। प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच अध्यायों में विभक्त है।
मण्डन-मन्त्री मण्डन का नाम प्रायः मण्डन-मन्त्री के रूप में जाना जाता है। ये श्रीमाल वंश में पैदा हुए थे। इनके पिता का नाम बाहड़ और पितामह का नाम झांझड़ था। ये बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् और राजनीतिज्ञ थे। श्रीमन्त कुल में उत्पन्न होने के कारण उनमें लक्ष्मी एवं सरस्वती का अभूतपूर्व मेल था। ये उदार और दयालु प्रकृति के थे। अल्पवय में ही मण्डन मालवा में माण्डवगढ़ के बादशाह होशंग के कृपापात्र बन गये थे और कालान्तर में उनके प्रमुख मन्त्री बने। सम्राट होशंग इनकी विद्वत्ता पर मुग्ध थे। राजकार्य के अतिरिक्त बचे समय को मण्डन विद्वत्-सभाओं में ही व्यतीत करते थे। ये प्रत्येक विद्वान् और कवि का बहुत सम्मान करते थे तथा उनको भोजन-वस्त्र एवं योग्य पारितोषिक आदि देकर उनका उत्साहवर्धन करते थे। मण्डन संगीत के विशेष प्रेमी थे। इसके अतिरिक्त वे ज्योतिष, छन्द, अलंकार, न्याय, व्याकरण आदि अन्य विद्याओं
614 :: जैनधर्म परिचय
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