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की थी। इसका लेखन काल वि.सं. 1280 (ई. सन् 1223) है तथा इसकी स्वोपज्ञ टीका का लेखन काल वि.सं. 1282 (ई. सन् 1225) है। अत: नरेन्द्रप्रभसूरि का समय विक्रम की 13वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है।
राजशेखर-सूरि ने न्यायकन्दली-पंजिका में नरेन्द्रप्रभसूरि की दो रचनाओं का उल्लेख किया है-अलंकार-महोदधि और कांकुत्स्थ-केलि। इसके अतिरिक्त विवेक-पादप और विवेक-कलिका नामक दो सुभाषित-संग्रह तथा दो वस्तुपाल प्रशस्ति-काव्य भी पाये जाते हैं। साथ ही गिरिनार के वस्तुपाल के एक शिलालेख के श्लोक भी नरेन्द्रप्रभसूरि रचित हैं । अलंकार-महोदधि : यह एक अलंकार-विषयक ग्रन्थ है। नरेन्द्रप्रभसूरि द्वारा रचे गये ग्रन्थों में यह सर्वोच्च है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर काव्यप्रकाश की छाया प्रतीत होती है। अतः डॉ. भोगीलाल सांडेसरा का यह कथन उचित ही है कि 'अलंकार-महोदधि' का सारा तीसरा तरंग काव्य-प्रकाश के चौथे अध्याय का एक लम्बा और सरलीकृत संस्करण है। उनके अनुसार अलंकार-महोदधि काव्यप्रकाश-जैसे दुरूह ग्रन्थों की अपेक्षा सरल है; जिसकी पुष्टि अलंकार-महोदधि के रचने में कारणभूत महामात्य वस्तुपाल के निवेदन से भी होती है। इसके साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ पर काव्यप्रकाश की अपेक्षा हेमचन्द्राचार्य के काव्यानुशासन का प्रभाव अधिक प्रतीत होता है, क्योंकि कवि-शिक्षा प्रसंग में काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ अलंकार-चूडामणि नामक टीका का एक सम्पूर्ण अंश ही प्रायः उद्धृत कर दिया गया है लेकिन इसके साथ ही अलंकार-महोदधि में कुछ ऐसी विशेषताएँ पायी जाती हैं, जो उसे काव्यप्रकाश और काव्यानुशासन से पृथक् सिद्ध करती हैं। उदाहरणार्थ काव्यप्रकाश में 61 अर्थालंकारों का समावेश किया गया है और काव्यानुशासन में मात्र 35 का; किन्तु अलंकार महोदधि में 70 अर्थालंकारों का समावेश किया गया है। इसी प्रकार काव्यप्रकाश में कुल मिलाकर 603 उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, जबकि अलंकार-महोदधि में 982 इत्यादि। उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्य कई विशेषताएँ रहने के बावजूद लेखक ने इसकी मौलिकता का दावा नहीं किया है, जो निरभिमानता की दृष्टि से उपयुक्त भी है। इसमें यत्र-तत्र भरत, भामह और आनन्दवर्धन आदि प्राचीन आचार्यों के उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ आठ तरंगों में विभाजित है। अमरचन्द्रसूरि
काव्यकल्पलता आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि अमरचन्द्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य और वायडगच्छीय आचार्य जिनदत्तसूरि के शिष्य थे। इनकी 'बालभारत' नामक कृति से ज्ञात होता है कि ये साधु होने से पूर्व कदाचित् (वायड) ब्राह्मण थे।
आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 609
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