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साफ लगती है कि ये ध्वनियाँ केवल नासिक्य नहीं हो सकतीं; क्योंकि इनके उच्चारण में नासिका और मुख दोनों विवरों का प्रयोग होता है। चूंकि दोनों विवरों का प्रयोग होता है, अतः इनका यथार्थ उच्चारण अनुनासिक ही है। अब सबाल उठता है कि इस अनुनासिक को व्यक्ष्जन माना जाय या स्वर? पाणिनीय परम्परा में अनुनासिक ध्वनियाँ स्वर मानी गयी हैं, जबकि कातन्त्रकार इन्हें 'कादीनि व्यंजनानि' तथा 'ते वर्गाः पच पचाः' कहकर इन्हें व्यंजन ही मानते हैं। इन ध्वनियों के दोनों परम्परावर्ती उल्लेखों को ध्यान से देखा जाय तो तीन स्थितियाँ उभरकर आती हैं - पहली स्थिति में कातन्त्रकार इन ध्वनियों को अनुनासिक रूप में सुन रहे थे, इसलिए इनका स्वरूप उन्होंने अनुनासिक ही कहा, जो पाणिनीय मत के अनुसार स्वर का एक भेद है। हमें भाषा में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ स्वर ध्वनियाँ कालक्रम में व्यंजन रूप में परिवर्तित होती देखी गयी हैं, पर जहाँ ये व्यंजन रूप में परिवर्तित हैं, वहाँ ये व्यंजन के प्रमुख आधार अभिलक्षणों से ही सम्पन्न हैं, स्वरों के आधार अभिलक्षणों से नहीं। इससे ऐसा लगता है कि कातन्त्रकार इन ध्वनियों की प्रकृति के अनुसार इनके स्वरूप को अनुनासिक के गुण से युक्त ही पाते हैं, पर वे वर्गीकरण की दृष्टि से इन्हें व्यंजन के साथ रख देते हैं, जबकि पाणिनि इन्हें व्यंजन रूप ही देखते हैं और व्यंजन रूप से ही वर्गीकृत करते हैं। दूसरी स्थिति यह है कि कातन्त्रकार के समय इन ध्वनियों की स्थिति स्पष्ट नहीं थी, इसलिए उच्चारण के स्तर पर उन्होंने इन्हें अनुनासिक कहा और वर्गीकरण के स्तर पर व्यंजन। तीसरी स्थिति यह है कि पाणिनीय परम्परा इन ध्वनियों का जो नासिक्य उच्चारण कह रही है, वह वस्तुतः सम्भव नहीं, पर भाषाई-व्यवस्था की दृष्टि से ये ध्वनियाँ व्यंजन तो हैं, पर इन्हें अनुनासिक ही माना जाना चाहिए, जैसा कि कातन्त्रकार का मत है या उनकी प्रस्तुति है।।
लोक, भाषा और अर्थ इन तीनों सन्दर्भो से भाषा और व्याकरण जुड़े हुए हैं और ये तीनों परस्पर सम्पृक्त हैं। यथार्थ घटना घटती है, उसका प्रत्यक्ष होकर प्रयोक्ता को बोध होता है और उस बोध से भाषिक शब्द जन्म लेता है; ऐसी ही दूसरी स्थिति में भाषिक शब्द से अर्थ-बोध होता है और वह अर्थ-बोध लोक में विद्यमान वस्तु की ओर संकेत करता है; तीसरी स्थिति में मस्तिष्क में विद्यमान बहुत सारे अर्थों में से एक अर्थ को कहने के लिए वक्ता चुनता है और तदनुसार उस अर्थ की वाचिक ध्वनि का उच्चारण कर यथार्थ जगत् में विद्यमान वस्तु की ओर संकेत करता है- इन तीनों स्थितियों के परिदृश्य में भाषा और व्याकरण घूमता है। भाष्यकार पतंजलि अपने भाष्य में- 'लोकतः' तथा 'लोकतोऽर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः' का प्रयोग कर स्पष्ट संकेत देते हैं कि शब्दों के अर्थ के निर्धारण का निकष लोक है, जबकि कातन्त्रकार इससे और आगे जाते हैं और वे कहते हैं कि 'लोकोपचाराद् ग्रहण-सिद्धिः' 1/1/23। इससे स्पष्ट है कि लोकव्यवहार से ही जिस वस्तु की ओर संकेतन होता है, उसके ग्रहण की सिद्धि होती है और इसप्रकार वे अपने शास्त्र को केवल साक्षात् अर्थ की ही सम्भाव्यता तक सीमित नहीं
578 :: जैनधर्म परिचय
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