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आधार है, उस कारक को अधिकरण कहते हैं और दोनों प्रक्रियाएँ क्रिया के तीन भेद ही मानती हैं- एक औपश्लेषिक, दूसरा वैषयिक, तीसरा अभिव्यापक। पाणिनि परम्परा में कारकों के क्रम में सबसे पहले अपादान, फिर सम्प्रदान और इसके बाद करण और तब अधिकरण, उसके बाद कर्म और कर्ता। कातन्त्र की सूत्रपाठी प्रक्रिया में करण से अधिकरण को पहले रखा गया है। इससे स्पष्ट लगता है कि कातन्त्र की दृष्टि में क्रिया की सम्पन्नता में अधिकरण की स्थिति पहले होती है, करण की बाद में। इसप्रकार सम्पूर्ण कारकीय परिदृश्य को देखें, तो कातन्त्र में क्रिया के निष्पादन में सबसे पहले अपादान आता है, जहाँ से वस्तुतः क्रिया का आरम्भ होता है; तदनन्तर सम्प्रदान आता है, जिसके लिए क्रिया हो रही है और बाद में अधिकरण आता है, जो आधार रूप है अर्थात् क्रिया का आधार रूप अधिकरण ही कातन्त्रकार का अभीष्ट है और उसके बाद जिससे क्रिया होनी है, वह करण सम्मुख होता है और तदनन्तर कर्म और कर्ता। पाणिनि की दृष्टि में करण अधिक महत्त्वपूर्ण क्रिया-निष्पादक है, जबकि कातन्त्रकार की दृष्टि में करण और अधिकरण दोनों की महत्ता है, पर अधिकरण की महत्ता प्रथमतः इसलिए है, क्योंकि वही वह आधार प्रस्तुत करता है, जिस पर क्रिया को निष्पन्न होना है, जबकि करण क्रिया को निष्पन्न करने का साधन बनता है। वस्तुतः अपादान और सम्प्रदान की स्थिति यद्यपि इन दोनों की सत्ता क्रिया के निष्पन्न होने से वैचारिक अधिक है। क्रिया वस्तुतः गति पाती है अधिकरण के अनन्तर और पूर्ण होती है कर्ता की अभीप्सित क्रिया वाले कर्ता की विवक्षा के पूर्ण होने पर, इसीलिए यह क्रम आचार्यों ने कारक के विचार करते समय उपस्थित किया है।
इसप्रकार स्पष्ट है कि जैन संस्कृत व्याकरणों में ऐसी बहुशः सामग्री है, जो जैनेतर संस्कृत व्याकरणों में नहीं है और उस सामग्री से एक भिन्न भारतीय भाषिक विचारसरणि के दर्शन होते हैं तथा कई बार पाणिनि व्याकरण की तुलना में भाषा सीखने में कम समय व कम श्रम भी लगता है और भिन्न विचार-सरणि व भिन्न व्याकरणिक प्रक्रिया के दर्शन होते हैं, अतः यदि इस सामग्री को अध्ययन-अध्यापन से दूर रखा गया, तो निश्चित रूप से हम संस्कृत व्याकरण-परम्परा के एक महत्त्वपूर्ण अंश से वंचित रह जाएँगे और समग्र भारतीय व्याकरण परम्परा से परिचित न हो पाएँगे।
व्याकरण :: 581
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