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साम्प्रदायिक कोशों का एक उद्देश्य यह भी है कि अपने सम्प्रदाय में प्रयुक्त होने वाले पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या, संकलन और प्रतिपादन हो जाये। (4) साम्प्रदायिक ग्रन्थों में आये व्यक्तियों के नाम, वस्तुओं के नाम तथा भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं आगमिक शब्दावलियों के अर्थों का निरूपण भी साम्प्रदायिक कोशों में ही सम्भव है। (5) प्रत्येक धर्म या परम्परा का किसी एक भाषा विशेष के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, इसलिए भाषा-विशेष सम्प्रदाय-विशेष के धर्मग्रन्थों की भाषा मान ली जाती है। जैसे-वैदिक धर्म के लिए संस्कृत, बौद्धधर्म के लिए पालि और जैनधर्म के लिए प्राकृत । अतः साम्प्रदायिक कोशकार अपने-अपने धर्म ग्रन्थों में व्यवहृत भाषा के कोश ग्रन्थ भी लिखते हैं। यही कारण है कि जैन कोशकारों ने संस्कृत के कोश ग्रन्थों के साथ-साथ प्राकृत और देशी भाषाओं में भी कोश-ग्रन्थों की रचना की है।
जैन कोश साहित्य का उद्भव और विकास- जैन मान्यतानुसार, तीर्थंकरकृत द्वादशांगवाणी (12 विभागों में वर्गीकृत प्रवचन विशेष) के अन्तर्गत सभी प्रकार का जैन साहित्य संन्निविष्ट हो जाता है, इसलिए कोश विषयक साहित्य भी सत्यप्रवादपूर्व और विद्यानुवाद की पाँच सौ महाविद्याओं में एक अक्षर-विद्या में समाहित है। प्रारम्भ में द्वादश-अंग, चतुर्दशपूर्वो के भाष्य, चूर्णियाँ, वृत्तियाँ तथा विभिन्न प्रकार की टीकाएँ ही कोश-साहित्य का कार्य करती रही हैं। कालान्तर में जब चूर्णियों, भाष्यों आदि से शब्दार्थों की पूर्णतः जानकारी नहीं हो सकी, तो शब्दकोशों की आवश्यकता प्रतीत
प्राप्त उल्लेखों/संकेतों के अनुसार स्पष्ट होता है कि जैनपरम्परा में लिखे गये अनेक कोश-ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं, अतः यह कहना अत्यन्त कठिन है कि सर्वप्रथम कौन-सा जैन कोश लिखा गया। इस विषय में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का निम्न कथन समुचित प्रतीत होता है-"उपलब्ध जैन कोश साहित्य में धनञ्जय कवि की नाममाला ही सबसे प्राचीन कोश है। यद्यपि ईसा की पाँचवीं और छठी शताब्दी में कोश का स्वरूप निश्चित हो चुका था। संघदासगणि की वसुदेवहिंडी की 'चत्तारि अट्ट' वाली गाथा के 14 अर्थ किए गये हैं। ये नाना अर्थ ही अनेकार्थ कोश की बुनियाद हैं। जैनों में प्रचलित द्विसन्धान, चतुस्सन्धान, सप्तसन्धान, चतुर्विंशतिसन्धान-जैसे अनेकार्थक काव्यों की परम्परा इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि जैनों में कोश-साहित्य का सृजन भाष्य और वृत्तियों के पश्चात् काल में ही हुआ होगा। अनेकार्थक साहित्य तभी लिखा जाता है, जब कोशों में शब्दों के विभिन्न अर्थ निश्चित कर लिए जाते हैं। एक-एक श्लोक के सौ-सौ अर्थों की अभिव्यंजना करना साधारण बात नहीं है।" ___ यहाँ पर जैन कोशकारों द्वारा रचित/सम्पादित संस्कृत, प्राकृत तथा संस्कृत-प्राकृत मिश्र, देशी एवं अपभ्रंश विषयक विभिन्न कोशों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया
584 :: जैनधर्म परिचय
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