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कोश एवं उसका महत्त्व-कोष शब्दादिसंग्रह के अनुसार शब्दों का संग्रह कोष या कोश कहलाता है। कोश में विशेष क्रम से शब्दों का संग्रह होता है तथा उसके अध्ययन से शब्दों की प्रकृति, विभिन्न अवयवों एवं अर्थों का ज्ञान होता है। इस तरह शब्दकोश की प्रकृति एकार्थक, पर्यायार्थक, या निरुक्तिमूलक शब्दों का संग्रह हो सकती है, पर सब का अभिप्राय शब्द और अर्थ का ज्ञान ही होता है। जिस प्रकार शरीर में श्रोत्र-इन्द्रिय की महत्ता है, उसी प्रकार अर्थज्ञान के लिए कोश की आवश्यकता होती है। इसीलिए निरुक्त (कोश विशेष) को वेद-पुरुष का श्रोत्र कहा गया है-निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते कोश से शब्दों के निश्चित अर्थ का बोध होता है। अर्थज्ञान के बिना व्यक्ति मात्र शब्दरूप भार का वाहक होता है, उसके फल का अधिकारी नहीं बन पाता।
स्पष्टतः शब्द के अर्थग्रहण में शब्दकोश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शब्दों में संकेतग्रहण की योग्यता कोश-साहित्य के द्वारा ही प्रतीत होती है। इसीलिए कोश की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे राजाओं या राष्ट्रों का कार्य कोश (खजाना) के बिना नहीं चल सकता और कोश के बिना शासन-सूत्र के संचालन में बहुत कठिनाई होती है, उसी प्रकार विद्वानों को भी शब्द-कोश के बिना अर्थ-ग्रहण में कठिनाई होती है
कोशस्यैव महीपानां कोशस्य विदुषामपि।
उपयोगो महानेष क्लेशस्तेन विना भवेत्।। जैन कोशादि कहने का औचित्य-जब कोश-व्याकरण आदि सर्वोपयोगी और सार्वजनीन साहित्य है, तब उसके साथ जैन, बौद्ध या वैदिक जैसी साम्प्रदायिकता की छाप कहाँ तक उचित है? ...साहित्य में साम्प्रदायिक भेद क्यों? ...इसका समाधान यह है कि-(1) प्रत्येक दर्शन के अपने कुछ विचार एवं मान्यताएँ होती हैं और इन मान्यताओं के अनुसार उसकी शब्दावली भी कुछ अंशों तक साम्प्रदायिक वातावरण से प्रभावित रहती है, अतः इन शब्दों का तात्त्विक अर्थ उस सम्प्रदाय के अभ्यासी ही समझ पाते हैं। यही कारण है कि जैनदर्शन के प्रकाश में शब्दों के अर्थों का विवेचन जैन कोशों में ही सम्भव है। (2) प्रत्येक दर्शनप्रस्थान या परम्परा में आवश्यकतानुसार नये-नये शब्दों का गठन या संयोजन किया जाता है। अतः पुरानी या प्रचलित शब्दावली उनके भावों की अभिव्यंजना में सफल नहीं हो पाती। अतएव साम्प्रदायिक कोशकार उपर्युक्त प्रकार की शब्दावलियों का चयन करते हैं। जैन-परम्परा के वर्गणा, जिन, अर्हत्, नाभिज आदि सैकड़ों शब्द हैं, जिनके पर्यायवाची अमरकोश, बैजयन्ती, मेदिनी, विश्वप्रकाश आदि कोशों में नहीं हैं। अत: जैन कोशकारों ने साधारणीकरण के आधार पर ऐसे कोशों का निर्माण किया, जो सब के लिए समान रूप से उपयोगी हो सकते हैं। (3)
कोश-परम्परा एवं साहित्य :: 583
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