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फुल्लंधुआ रसाऊभिंगा भसला या महुअरा अलिबो।
इंदिदिरा दुरेहा धुअगाया छप्पया भमरा ।। अर्थात् फुल्लंधुअ, रसाऊ, भिंग, भसल, महुअर, अलि, इंदिदिर, दुरेह, धुअगाय, छप्पय और भमर, ये 11 नाम भ्रमर के हैं। इन ग्यारह नामों में फुल्लंधुय, रसाऊ, भसल, इंदिदिर और धुअगाय ये पाँच शब्द देशी हैं। ऐसे तो फुल्लंधुअ की व्युत्पत्ति पुष्पन्धय
और रसाऊ की रसायुत् से की जा सकती है और पुष्पन्धय का अर्थ भी पुष्परस का पान करने वाला भ्रमर होगा, किन्तु ये दोनों शब्द देशी ही हैं। ___ इस कोश में 'सुन्दर' शब्द के पर्यायवाचियों में 'लट्ठ' शब्द का प्रयोग मिलता है, यह भी देशी शब्द है। इसमें कुछ ऐसे भी देशी शब्द आये हैं, जिनका प्रयोग आज भी लोकभाषाओं में होता है। जैसे-अलस या आलस के पर्यायवाचियों में एक 'मट्ठ' शब्द आया है। ब्रज भाषा में आज भी इस शब्द का प्रयोग 'आलसी' के अर्थ में होता है। इसी प्रकार नूतन पल्लवों के लिए कुंपल शब्द मिलता है। यह शब्द भी ब्रज, भोजपुरी और खड़ी बोली- इन तीनों में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार इस कोश में अनेक ऐसे देशी शब्द संगृहीत हैं, जिनका प्रयोग आज भी आर्य भाषाओं में देखा जाता है। कोश के अन्त में प्रत्ययों के अर्थ बतलाए गये हैं। 'इर' प्रत्यय को स्वभावसूचक
और इल्ल, इत्र, आल प्रत्यय को मत्वर्थक बताया गया है। इस तरह कोशकार ने इस कोश को सब तरह से उपयोगी बनाने का प्रयास किया है।
कोशकार धनपाल के बाद हेमचन्द्रसूरि (ईसवी 1088-1172) का स्थान आता है। इन्होंने साहित्य, व्याकरण, काव्य, कोश, छन्द आदि विषयों पर महत्त्वपर्ण रचनाएँ की। राजा सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल इनकी विद्वत्ता से बहुत प्रभावित थे। उनके अगाध पांडित्य के कारण उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' जैसा विरुद दिया गया। इनके चार कोश-ग्रन्थ प्राप्त होते हैं-1. अभिधानचिन्तामणि, 2. अनेकार्थसंग्रह, 3. निघंटु और 4.देशीनाममाला। इनमें प्रथम तीन संस्कृत के कोश हैं और चौथा देशी शब्दों का कोश है। निघंटु का विषय वनस्पति-शास्त्र है।
अभिधानचिन्तामणि- जैन परम्परा में इस कोश का विशेष महत्त्व है। संस्कृत के जैन कोशों में यही एक ऐसा कोश है, जिसमें जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विषयों का विवेचन है। इसमें तीर्थंकरों के नाम, प्रत्येक तीर्थंकर के पर्यायवाची शब्द, तीर्थंकरों के माता-पिता के नाम, तीर्थंकरों के अतिशयों की नामावलि, भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन चौबीसी, गणधरों के नाम, तीर्थंकरों के ध्वजचिह्न, अन्तिम केवली, श्रुतकेवली, तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ, जैन आम्नाय द्वारा समस्त देवगति, तिर्यञ्चगति के जीवों का वर्णन किया गया है।
कोश-परम्परा एवं साहित्य :: 587
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