________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
के स्थान पर थाहड का प्रयोग किया गया है। इनको प्रभावक चरित के अन्य कई स्थलों पर भी थाहड नाम से अभिहित किया गया है।
आचार्य वाग्भट-प्रथम ने समुच्चयालंकार के उदाहरण में निम्न तीन रत्नों का उल्लेख किया है-(1) अणहिल्लपाटनपुर नामक नगर, (2) राजा कर्णदेव के सुपुत्रराजा जयसिंह और (3) श्रीकलश नामक हाथी। इससे यह निश्चित हो जाता है कि आचार्य वाग्भट-प्रथम चालुक्यवंशीय कर्णदेव के पुत्र राजा जयसिंह के समकालीन थे। राजा जयसिंह का राज्य काल वि.सं. 1150 से 1199 (1093 ई. से 1143 ई.) तक माना जाता है। अतः वाग्भट-प्रथम का भी यही काल प्रतीत होता है। इसकी पुष्टि प्रभावक-चरित के इस कथन से भी होती है कि वि. सं. 1178 में मुनिचन्द्रसूरि के समाधिमरण होने के एक वर्ष पश्चात् देवसूरि के द्वारा थाहड (वाग्भट) ने मूर्ति-प्रतिष्ठा कराई।' तात्पर्य यह कि उस समय वाग्भट विद्यमान थे। अत: वाग्भट का समय उक्त राजा जयसिंह का ही काल युक्ति-युक्त मालूम होता है। अब तक उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार उनका एक मात्र अलंकार ग्रन्थ 'वाग्भटालंकार' ही प्राप्त है। वाग्भटालंकार : 'वाग्भटालंकार' एक बहुचर्चित कृति है। इसकी संस्कृत टीकाएँ जैन विद्वानों के अतिरिक्त जैनेतर विद्वानों द्वारा भी लिखी गयी हैं। पाँच परिच्छेदों में विभाजित वाग्भटालंकार पर लिखी गयी उपलब्ध एवं अनुपलब्ध कुल टीकाओं की संख्या लगभग 17 है। इतनी अधिक टीकाओं से ही इस ग्रन्थ की महत्ता सिद्ध हो जाती है।
आचार्य हेमचन्द्र ___ आचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विद्वान् थे। उनकी साहित्य-साधना अत्यन्त विशाल और व्यापक है। जीवन को संस्कृत, संवर्द्धित और संचालित करने वाले जितने पहलू हैं, उन-सब पर उन्होंने अपनी अधिकारपूर्ण लेखनी चलायी है। उनकी साहित्य सेवा को देखकर विद्वानों ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' जैसी उपाधि से विभूषित किया है। ___ आचार्य हेमचन्द्र का जन्म विक्रम सं. 1145 में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को धुंधुका नामक नगर (गुजरात) के मोढ वंश में हुआ था। उनका बाल्यावस्था का नाम चांगदेव था तथा उनके पिता का नाम चाचिग और माता का नाम पाहिणी देवी था। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार बालक चांगदेव का धीरे-धीरे विकास होने लगा। उसे बचपन से ही धर्म-गुरुओं के सम्पर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः उन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य देवचन्द्र से दीक्षा ग्रहण कर ली थी। दीक्षा के पश्चात् उनका नाम सोमचन्द्र रखा गया।"
आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 605
For Private And Personal Use Only