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पड़ा।
5. प्रयुक्त संज्ञाओं को ह्रस्वीकृत करना। यथा-प्रथमा- वा, बहुवचन-बहु, बहुव्रीहिबम्।
6. अनेक सूत्रों के स्थान पर एक सूत्र का प्रयोग। ऐसा करने में ग्रन्थकार ने प्रायः दो, तीन, चार, पाँच सूत्रों के स्थान पर एक सूत्र तो बनाया ही है, पर जहाँ पाणिनि ने 13 सूत्र बनाए, उन सबके लिए जैनेन्द्र ने केवल एक सूत्र से ही सारा काम किया- कुस्तुम्बुरु... (413116) सूत्रों को भी छोटा किया। यथा- पा. - तुल्यबलविरोधे परं कार्यम्। जै. स्पर्द्धपरम् (112190) पा. प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्। जै. त्यखे त्याश्रयम् (11163) पा. न लुमताङ्ग। जै. नोमता गोः (1164)
7. सूत्र-संख्या का कम करना तो स्वाभाविक ही था।
8. प्रत्ययों की संख्या घटाना। जैसे- पाणिनि के सम्पूर्ण स्त्री वाचक प्रत्ययों से होने वाले कार्य को केवल आठ स्त्री प्रत्ययों- टाप, आप, ङ डाय, फड्, ऊ, खमू एवं श्य- में ही समाहित कर लिया है। ___ 9. अनेक ऐसे स्थल भी हैं, जहाँ पाणिनि ने केवल एक सूत्र बनाया है, वहाँ जैनेन्द्र ने दो या अधिक सूत्रों को रखा है, इससे ज्ञातव्य है कि जैनेन्द्रकार की इच्छा सूत्र-पाठ के सरलीकरण की रही हो। यथा- जै. 1/2/16-17 - पा. 1/3/22 जै. 1/4/19-20-21 पा. 2/3/10
इसप्रकार हम देखते हैं कि-पूज्यपाद ने अपने जैनेन्द्रानुशासन में जहाँ पूर्वप्रचलित सामग्री की बहुश: रक्षा की है, वहीं संक्षेपणीयता को, स्वकालीन संस्कृति को, धर्म को, दर्शन को, अनेक नवीन स्थितियों-विशेषताओं को, नए-नए नियमों को, नई शब्दसिद्धि-प्रक्रिया को एवं सूत्रों में गुन्थित अभिनव भाषा-चिन्तन को भी समेटा है, अंकित किया है।
अब शाकटायन के प्रसंग से चर्चा आगे बढ़ाते हैं। शाकटायन की सबसे बडी विशेषता अपने ग्रन्थ में स्वराध्याय के प्रतिपादन की है, जिसका इस दृष्टि से उल्लेख न पाणिनि के द्वारा ही और न चान्द्र ने ही किया है।
पाणिनि के मत में शब्द से पूर्व अर्थात् सुबन्त से पूर्व प्रत्यय नहीं होते, जबकि शाकटायन ने एक स्थान पर इस पूर्व की परम्परा को हटाते हुए सुबन्त शब्द से पूर्व प्रत्यय 'बहु' के लिए उपदेश किया है। सुपः प्राग्बहुर्वा । (3/4/68) विभाषा सुपो बहु च पुरस्तात्तु अष्टा.।
शाकटायन शब्दानुशासन में अनेक प्रत्यय नवीन भी प्रयुक्त हुए हैं। यथा-त्रप्च्, एद्युस्, र्हि, टेन्यण, कृत्वस्, त्रा, सात्, कट्य, टनण, ख्नु, ल, स्न, कार, रूप्य, आहण, ण्ढिन्, चुद्गचु, शाकिन्, शाकट।
प्रत्यय की व्याख्या भी शाकटायन की अपनी है। वे कहते हैं- शष्ठयर्थ से भिन्न
व्याकरण :: 573
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