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देशान्तर को जाता हुआ आसपास के वातावरण को झनकाता जाता है। यन्त्रों से इसकी गति बढ़ाई जा सकती है और उसकी सूक्ष्म लहर को सुदूर देश से पकड़ा जा सकता है। वक्ता के तालु आदि के संयोग से उत्पन्न हुआ एक शब्द मुख से बाहर निकलते ही चारों
ओर के वातावरण को उसी शब्द रूप में कर देता है। वह स्वयं भी नियत दिशा में जाता है और जाते-जाते शब्द से शब्द, शब्द से शब्द उत्पन्न करता जाता है। शब्द के जाने का अर्थ पर्याय वाले स्कन्ध का जाना है और शब्द की उत्पत्ति का भी अर्थ आसपास के स्कन्धों में शब्द-पर्याय का उत्पन्न होना है। तात्पर्य यह है कि शब्द स्वयं द्रव्य की पर्याय है और इस पर्याय का आधार है पुद्गल-स्कन्ध। पर्याय-रूप-शब्द केवल शक्ति नहीं है, क्योंकि शक्ति निराधार नहीं होती, उसका कोई न कोई आधार अवश्य होता है और इसका आधार है- पुद्गल-द्रव्य।
इसके साथ ही साथ जैनदर्शन की यह भी मान्यता रही है कि सभी शब्द वास्तव में क्रियावाची ही हैं। जातिवाचक अश्वादि शब्द भी क्रियावाचक हैं, क्योंकि आशु अर्थात् शीघ्र गमन करने वाला अश्व कहा जाता है। गुण वाचक शुक्ल, नील आदि शब्द भी क्रियावाचक है, क्योंकि शुचि अर्थात् पवित्र होना रूप क्रिया से शुक्ल तथा नील रँगने रूप क्रिया से नील कहा जाता है। देवदत्त आदि यदृच्छा शब्द भी क्रियावाची है, क्योंकि देव ही जिस पुरुष को देवे, ऐसे क्रिया रूप अर्थ को धारता हुआ देवदत्त है। इसीप्रकार यज्ञदत्त भी क्रियावाची है। दण्डी, विषाणी आदि संयोगद्रव्यवाची या समवायद्रव्यवाची शब्द भी क्रियावाची ही हैं, क्योंकि दण्ड जिसके पास वर्त रहा है, वह दण्डी और सींग जिसके वर्त रहे है, वह विषाणी कहा जाता है। जाति शब्दादि रूप पाँच प्रकार के शब्दों की प्रवृत्ति तो व्यवहार मात्र से होती है।
शब्द के श्रवण और संचार सम्बन्धी नियम
वक्ता बोलने के पूर्व भाषा-परमाणुओं को ग्रहण करता है, भाषा के रूप में उनका परिणमन करता है और अन्त में उनका उत्सर्जन करता है। उत्सर्जन के द्वारा बाहर निकले हुए भाषा-पुद्गल आकाश में फैलते हैं। वक्ता का प्रयत्न यदि मन्द है, तो वह पुद्गल अभिन्न रहकर "जल-तरंग" न्याय से असंख्य योजन तक फैलकर शक्तिहीन हो जाते हैं
और यदि वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है, तो वे भिन्न होकर दूसरे असंख्य स्कन्धों को ग्रहण करते-करते अति-सूक्ष्म काल में लोकान्त तक चले जाते हैं।
जब दो स्कन्धों के संघर्ष से कोई एक शब्द उत्पन्न होता है, तो वह आस-पास के स्कन्धों को अपनी शक्ति के अनुसार शब्दायमान कर देता है अर्थात् उसके निमित्त से उन स्कन्धों में भी शब्द-पर्याय उत्पन्न हो जाती है। जैसे- जलाशय में एक कंकड़ डालने पर
जैनों का भाषा-चिन्तन :: 565
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