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लवणसमुद्र में जल की ऊँचाई अधिक होने से सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों का संचार जल के भीतर से ही होता है।
धातकी-खंड- लवणसमुद्र को वलयाकाररूप से घेरे हुए चार लाख योजन विस्तृत 'धातकी खंड' है। धातकी वृक्ष (आँवले का पेड़) होने से यह धातकीखंड कहलाता है। इस द्वीप की उत्तर और दक्षिण दिशा में दक्षिणोत्तर लम्बे, चार कूटों से संयुक्त, चार-चार सौ योजन ऊँचे दो इष्वाकार पर्वत हैं। इनसे यह द्वीप (1) पूर्वी धातकी-खंड और (2) पश्चिमी धातकी-खंड-इन दो खंडों में विभक्त हो गया है। इन दोनों खंडों में क्षेत्र, पर्वत, नदी, सरोवर आदि की रचना जम्बूद्वीप के समान है। कुलाचल आदि की गहराई, ऊँचाई तो समान है, पर विस्तार सभी का दूना-दूना है। दोनों खंडों के मेरुओं की ऊँचाई 84-84 हजार योजन है। पूर्वीखंड में विजयमेरु और पश्चिमी खंड में अचल मेरु हैं। इन पर सुदर्शन मेरु की तरह भद्रशाल आदि 4 वन, 3 कटनियाँ तथा जिनालय आदि हैं 182
कालोदक-समुद्र-धातकीखंड को वलयाकार रूप से घेरे हुए आठ लाख योजन विस्तृत 'कालोदक समुद्र' है। इसमें पाताल नहीं है। यह सर्वत्र एक हजार योजन गहरा है। लवण समुद्र की तरह इस समुद्र में भी आभ्यन्तर और बाह्य तटों के समीप 2424 कुमानुष द्वीप हैं। इन में कुभोगभूमिया विचित्र आकृति और एक पल्य की आयुवाले मनुष्य/तिर्यंच रहते हैं। कालोदक समुद्र को आदि लेकर आगे के सब समुद्र टांकी से उकेरे गये के समान तटों वाले, एक हजार योजन गहरे और दो वेदिकाओं से वेष्टित हैं।
पुष्करवर-द्वीप-पुष्करवृक्ष से चिह्नित कालोदक समुद्र को वलयाकार रूप से घेरे सोलह लाख योजन विस्तृत 'पुष्करवर द्वीप' है। इसके बीचों-बीच कुंडलाकार 'मानुषोत्तर' पर्वत है। इससे यह द्वीप भीतरी और बाह्य-इन दो भागों में बँट गया है। इसके भीतरी भाग में ही मनुष्य हैं। इस पर्वत को लाँघकर मनुष्य बाहरी भाग में नहीं जा सकते। इसी से यह पर्वत 'मानुषोत्तर' कहलाता है; यथा-"मणुसुत्तरो ति मणुसा मणुसुत्तरलंघ सत्ति परिहीणा"-त्रिलोकसार 323 । इसे लाँघने की सामर्थ्य मनुष्यों में नहीं है।
__ आठ लाख योजन विस्तृत भीतरी पुष्करार्ध द्वीप में धातकी-खंड की ही तरह उत्तरदक्षिण में एक-एक इष्वाकार पर्वत है, जिनसे यह द्वीप भी पूर्वी और पश्चिमी-इन दो भागों में बँट गया है। इन दोनों ही भागों में जम्बूद्वीप के ही समान क्षेत्र, पर्वत, नदी सरोवर आदि की रचना है। इनका विस्तार धातकी-खंड के कुलाचलादि से दूना-दूना है। यहाँ के पूर्वी भाग में मन्दर-मेरु और पश्चिमी भाग में विद्युन्माली नाम के 8484 हजार योजन ऊँचे मेरुपर्वत हैं। इन पर भी वन, जिनालय आदि सुमेरु की ही तरह हैं।
मानुषोत्तर पर्वत– पुष्कर-वर-द्वीप के मध्य में कुंडलाकार रूप से स्थित मनुष्यलोक का विभाजक 1721 योजन ऊँचा स्वर्णिम मानुषोत्तर पर्वत है। इसका भीतरी भाग
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