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भरत-ऐरावत क्षेत्रों के सभी म्लेच्छ खंडों में तथा विजयार्ध पर्वतों की श्रेणियों में अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के आदि से अन्त तक आर्यखंडों जैसी आयु, उत्सेध, सुखादि की हानि होती रहती है तथा उत्सर्पिणी के तृतीयकाल जैसी आदि से अन्त तक क्रमिक वृद्धि होती रहती है। यहाँ अवसर्पिणी के 1, 2, 3, 5, 6 तथा उत्सर्पिणी के 1, 2, 4, 5, 6 कालों जैसी वर्तना नहीं होती।106 अतः ये भी अवस्थित भूमियाँ हैं।
कर्मभूमियाँ 08- असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प-इन छह कर्मों द्वारा जहाँ आजीविका अर्जित की जाती है तथा देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये 6 प्रशस्त कर्म जहाँ किए जाते हैं। प्रकर्षरूप से पाप और पुण्य कर्मों का उपार्जन जहाँ होता है। वे सब कर्मभूमियाँ हैं। सातवें नरक तक ले जाने वाले प्रकर्षपाप-कर्मों का तथा सर्वार्थसिद्धि तक ले जाने वाले प्रकर्ष-पुण्य-कर्मों का उपार्जन इन्हीं कर्मभूमियों में होता है। मोक्ष हेतु प्रबल पुरुषार्थ/ साधना भी इन्हीं में संभव होती है। भरत, ऐरावत तथा विदेह क्षेत्रों के आर्यखंडों में ये कर्मभूयिमाँ हैं। ढाईद्वीप में 5 भरत, 5 ऐरावत और 5 विदेह-ये 15 कर्मभूमियाँ हैं, पर आर्यखंडों की अपेक्षा इनकी संख्या 170 है। एक-एक विदेह में 32-32 आर्यखंड हैं। पाँचों विदेहक्षेत्रों के 160 तथा 5 भरत और 5 ऐरावत क्षेत्रों के 10 आर्यखंडों को मिलाने पर इनकी कुल संख्या 170 हो जाती है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि षटकाल-परिवर्तन केवल भरत और ऐरावत के आर्यखंडों में ही होता है; क्योंकि ये अनवस्थित क्षेत्र/भूमियाँ हैं। अवस्थित क्षेत्र/ भूमियाँ होने के कारण विदेह क्षेत्रों के सभी आर्यखंडों में षट्काल-परिवर्तन नहीं होता। यहाँ हमेशा चतुर्थकाल ही वर्तता रहता है।
कुभोग भूमियाँ 09_ "षण्णवति कुभोगभूमयः" ।।13, शा.सा. समु. लवणसमुद्र और कालोदक समुद्रों के दोनों आन्तरिक और बाह्य तटों के पास 24-24 अन्तर्वीप हैं। दोनों समुद्रों के चारों तटों के 24x4-96 अन्तर्वीप ही 96 कुभोग भूमियाँ हैं। यहाँ कुत्सितरूप वाले कुमानुष तिर्यंच रहते हैं। ये सभी अन्तर्वीप मधुर रस वाले फल-फूलों से युक्त कल्पवृक्षों के वनखंडों से तथा जल से परिपूर्ण बावड़ियों सहित हैं। लवण-समुद्र
कुमानुष-द्वीप
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