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जैनों का भाषा-चिन्तन
वृषभ प्रसाद जैन
जैन परम्परा में भाषा की दार्शनिक दृष्टि भी अपनी एक अलग पहचान रखती है और प्रयोग की विश्लेषण दृष्टि भी। सभी वैदिक दर्शन भाषा के दार्शनिक दृष्टि पर तो भिन्न-भिन्न विचार ही रखते हैं, पर सब की भाषा के प्रयोग को विश्लेषण करने की दृष्टि लगभग एक है। जैनों की भाषा-दृष्टि का चमत्कार यह है कि उनकी भाषा-दृष्टि जहाँ भाषा के दार्शनिक पक्ष को भिन्न प्रकार से देखती है, वहीं भाषा के प्रयोग पक्ष को भी। भाषा के प्रयोग-पक्ष को लेकर चर्चा प्राकृत-संस्कृत आदि के व्याकरण-ग्रथों में तथा दार्शनिक पक्ष की चर्चा जैन परम्परा के दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों में मिलती है।
सम्पूर्ण भारतीय परम्परा में भाषा के बारे में दो तरह से विचार मिलते हैं- 1.भाषा के जो षास्त्र हैं, वे भाषा के बारे में किस रूप में विचार करते हैं? 2. हमारी ही परम्परा में भाषेतर विषयों के जो शास्त्र हैं, वे भाषा के बारे में किस रूप में विचार करते हैं? यद्यपि पहले बिन्दु पर हमने जैन व्याकरण वाले आलेख में कुछ संक्षिप्त चर्चा हम कर चुके हैं, फिर भी इन दोनों बिन्दुओं पर इस आलेख में विचार करने की कोशिश है, क्योंकि हमारी परम्परा में दोनों तरह से भाषा पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार हुआ है। बल्कि मुझे तो लगता है कि सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन भाषा-मूलक रहा है, इसीलिए तो हमारी परम्परा में उक्ति मिलती है कि "सर्व खलु भाषया प्रतिभासते"। भाव यह है कि संसार में जो कुछ दिखता है, वह भाषा से ही दिखता है। भाषा से ही संसार की पहचान है व होती है। भाषा न हो, तो संसार की पहचान न हो; इसीलिए तो यह कहने में कोई अतिरंजना न होगी कि भाषा न हो, तो संसार न हो, क्योंकि भाषा ही संसार की वस्तुओं को पहचान देती है। इसीलिए तो वैयाकरणों के भगवान् भर्तृहरि ने संसार की प्रक्रिया का प्रारम्भ शब्द-तत्त्व से माना है और वे वाक्यपदीय में कहते हैं कि
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। भाव यह है कि आदि और अन्तरहित जो अक्षर (अविनाशी) शब्द-तत्त्व है, असल
560 :: जैनधर्म परिचय
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