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करते हैं। इस तरह जितने सागरों की आयु होती है। उतने पक्षों के बाद वे श्वास लेते हैं और उतने ही हजार वर्षों के बाद वे मानसिक-आहार ग्रहण करते हैं। एक पल्य की आयु वाले देव 5 दिन के अन्तर से आहार और 5 मुहूर्त के अन्तराल से श्वास ग्रहण करते हैं। देवों के मन में आहार का विकल्प होते ही कंठ से अमृत झर जाता है और वे तप्त हो जाते है। यही उनका मानसिक-आहार है।
देवों में कामसेवन/प्रवीचार–'कायप्रवीचारा आ-ऐशानात्'-4/7 त. सूत्र । भवनत्रिक सहित ऐशान स्वर्ग तक के देव मनुष्यों की तरह शरीर से ही कामसेवन करते हैं। 'शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनः प्रवीचाराः' -त. सू. 4/7। सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों के देवदेवियाँ परस्पर अंगस्पर्श कर कामसेवन के सुख का अनुभव करते हैं। ब्रह्म से कापिष्ठ स्वर्गों तक के देव-देवियाँ परस्पर सुन्दर रूप को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं। शुक्र से सहस्रार तक के देव-देवियाँ परस्पर शब्द-श्रवण मात्र से ही सुखानुभव करते हैं। आनत से अच्युत स्वर्गों के देव-देवियाँ मन में एक-दूसरे का विचार आते ही तृप्त हो जाते हैं।137 'परेऽ प्रवीचाराः' -त.सू. 4/9। कल्पातीत देव प्रवीचार से रहित होते हैं; क्योंकि उन्हें कामवेदना ही नहीं होती।138 16 स्वर्गों के ऊपर देवियाँ ही नहीं होती। वहाँ सभी देव अहमिन्द्र होते हैं।138
वैमानिक देवों का वैशिष्ट्य-वैमानिकों में ऊपर-ऊपर के देवों में स्थिति (आयु), शाप-अनुग्रह की शक्ति (प्रभाव), सुखानुभूति, शरीर तथा वस्त्राभरणों की कान्ति (द्युति), लेश्या की निर्मलता/परिणाम-विशुद्धि, इन्द्रिय और अवधिज्ञान के विषय अधिकअधिक होते हैं। शक्ति और प्रभाव ऊपर के देवों में अधिक होते हुए भी इनके उपयोग का अवसर प्राय: इन्हें नहीं आता; क्योंकि ऊपर के देव गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की दृष्टि से हीन-हीन होते हैं अर्थात् ऊपर के देव गमनागमन कम करते हैं, उनके शरीर की ऊँचाई और मूर्छा-परिणाम (परिग्रह) भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है। अभिमान भी ऊपर-ऊपर घटता जाता है।140 जिनेन्द्रों की महापूजा और कल्याणकों के समय सभी अहमिन्द्र अपने ही स्थान पर रहकर मस्तक पर अंजलिपुट रखकर नमन करते हैं।
देवों की अन्य विशेषताएँ-देवों का अकालमरण नहीं होता। इन का शरीर और वस्त्राभूषण दिव्य होते हैं। शरीर सदा युवा और सुगन्धित रहता है। लौकान्तिक देवों को छोड़ 16 स्वर्गों के देवों की अनेक देवियाँ होती हैं, जो अपने शरीर से पृथक् विक्रिया भी कर सकती हैं। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ही होते हैं, नपुंसक नहीं। इन्हें भवप्रत्यय कुअवधि या सु-अवधिज्ञान होता है तथा इनके आठ ऋद्धियाँ भी होती हैं-ये अपने शरीर को छोटा या बड़ा (अणिमा), मेरु की तरह विशाल (महिमा) वज्र की तरह कठोर तथा भारी (गरिमा), रुई की तरह भार-हीन (लघिमा) बना सकते
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