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ऊपर उठ जाता है और गोलाकार दिखने लगता है। अनेक छोटे-छोटे पर्वत और उपसमुद्र भी प्रकट हो जाते हैं। इन आर्यखंडों में आन्तरिक और बाह्य शक्तियों द्वारा धरातलीय स्वरूप निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। जिससे यहाँ का धरातल सदा-काल एकरूप नहीं रहता। आज के भू-वेत्ताओं ने भी इसे माना है, स्वीकारा है। उनके अनुसार यह दृश्यमान भूमंडल अरबों वर्ष पूर्व एक पेंजिया के रूप में था, जिसमें सभी महाद्वीप जुड़े हुए थे। कालान्तर में आन्तरिक शक्तियों के फलस्वरूप ये अलग-अलग हुए हैं और इनके बीच में महासागर तथा अनेक उपसागर और झीलें बनी हैं। अनेक भूभाग समुद्र में डूब गये, अनेक ऊपर उभर आये हैं। इसी अनवस्थित भूगोल का विवेचन आधुनिक भूगोल करता है। इसी से दोनों में असंगति प्रतीत होती है।
निष्कर्ष-करणानुयोग में प्रतिपादित स्वर्ग-नरक, भूगोल-खगोल विषयक सभी विवरण इन्द्रियज्ञानगम्य न होने से आस्था-विश्वास और श्रद्धा के विषय हैं; क्योंकि स्वर्ग-नरक हमारे प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष हैं। हमारे इन्द्रियज्ञान से नहीं जाने जा सकते। द्वीप-समुद्र आदि पदार्थ/स्थान दूरवर्ती एवं अत्यन्त प्राचीन हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि खगोलीय पिंड भी दूरार्थ हैं, सभी केवलीगम्य हैं। जैनभूगोल धर्मध्यान का विषय है। ध्यानस्थ श्रमण संस्थानविचय धर्मध्यान में इनके स्वरूप विस्तार आदि के विषय में चिन्तवन किया करते हैं। जैनाचार्यों ने जैनसाहित्य में जैनभूगोल का इसी से विस्तृत विवेचन किया है।
उपर्युक्त समस्त विवेचन प्रमुख रूप से निम्नांकित ग्रन्थों पर आधारित हैंसन्दर्भ-ग्रन्थ 1. तिलोय-पण्णत्ती-(आ. श्री यतिवृषभ), द्वितीय संस्करण, वि. सं. 2050
प्रकाशक-श्री भारतवर्षीय दि. जैन महासभा, लखनऊ 2. त्रिलोकसार-(आ. श्री नेमिचन्द्र सि. च.), प्रथम संस्करण, वी. नि 2501
प्रकाशक-श्री शान्तिवीर दि. जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी 3. मूलाचार-(आ. श्री वट्टकेर) पाँचवाँ संस्करण, सन् 2004, प्रकाशक-भारतीय
ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 110003 4. जंबदीव पण्णत्ति-संगहो-(श्री पद्मनन्दि) द्वितीय आवृत्ति, सन् 2004 प्रकाशक
श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर-7 5. लोकविभाग-(श्री सिंह सूरर्षि), द्वितीय आवृत्ति, सन् 2001, प्रकाशक-श्री
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर 6. हरिवंश पुराण-(श्रीमज्जिनसेनाचार्य), छठा संस्करण, सन्–2000, प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली-110003
552 :: जैनधर्म परिचय
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