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यहाँ कुमानुष-तिर्यंच युगलरूप में जनमते-मरते हैं। इन्हें किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट, व्याधि आदि नहीं होते। ये मन्दकषायी होते हैं। वनों में वृक्षों के नीचे रहकर फल-फूल खाकर शान्तिमय जीवन जीते हैं। कुछ कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मधुर स्वादिष्ट मिट्टी खाते हैं। इनकी आयु एक पल्य की होती है। इनका शरीर एक कोश (2000 धनुष) ऊँचा होता है। ये आयुपर्यन्त उत्तम भोग भोगते हैं। आयु पूर्ण होने पर मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक में तथा सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ईशान स्वर्गों में जन्म लेते
___ कुमानुषों में कौन जनमते हैं- जो दिग. मुनि होकर भी मायाचारी करते हैं। ज्योतिष तथा मन्त्र आदि का प्रयोग कर आहार आदि प्राप्त करते हैं, धन चाहते हैं। ऋद्धिरस-सात गारवों से तथा आहार-भय-मैथुन-परिग्रह संज्ञाओं से युक्त होते हैं। दूसरों के विवाह कराते हैं, सम्यक्त्व की विराधना करते हैं। अपने दोषों की आलोचना नहीं करते और दूसरों को दोष लगाते हैं। जो मिथ्यादृष्टि पंचाग्नि तप तपते हैं, मौन छोड़कर भोजन करते हैं। जो दुर्भावना से, अपवित्रता से, सूतक से, पुष्पवती के संसर्ग से जातिसंकर आदि दोषों से युक्त होते हुए भी सत्पात्रों को दान देते हैं तथा कुपात्रों को दान देने वाले सभी कुभोगभूमियों में कुमानुष-तिर्यंच होते हैं।
तिर्यंचों की भोगभूमि-व्यवस्था- मानुषोत्तर पर्वत के आगे स्वयंभूरमणद्वीप के मध्य में स्थित स्वयंप्रभपर्वत तक के असंख्यात-द्वीपों में तिर्यंचों की जघन्य भोगभूमि व्यवस्था है। यहाँ केवल युगलिया तिर्यंच ही उत्पन्न होते हैं। ये एक पल्य की आयुवाले होते हैं तथा जघन्य भोगभूमि के सुखों को भोगते हैं। आयु के अन्त में मरकर भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। यदि सम्यक्त्व सहित होते हैं, तो सौधर्म-ईशान स्वर्गों तक भी जन्म धारण करते हैं।110
तिर्यंचों की कर्मभूमि-व्यवस्था- स्वयंप्रभ पर्वत से बाहर आधे स्वयंभूरमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यंचों की कर्मभूमि व्यवस्था है। यहाँ के जलचर, थलचर, नभचर तिर्यंचों में सम्यक्त्व ग्रहण करने की तथा अणुव्रतों को धारण कर देशव्रती होने की योग्यता है। किन्हीं को जातिस्मरण से और किन्हीं को देवों द्वारा धर्मोपदेश मिलने से सम्यक्त्व हो जाता है। कदाचित् कोई देशव्रती भी बन जाते हैं। यहाँ ऐसे सम्यक्त्वी और देशव्रती तिर्यंच असंख्यात हैं, जो आयु पूर्ण कर देवगति पाते हैं। यहाँ पर दुषमा नामक पंचम काल-जैसी वर्तना सदा होती रहती है। उत्कृष्ट अवगाहना के तिर्यंच यहीं पाये जाते हैं।111
ऊर्ध्वलोक-अधोलोक के ऊपर सात राजू ऊँचा मृदंगाकार ऊर्ध्वलोक है। इन सात राजुओं में सुमेरु पर्वत की ऊँचाई बराबर मध्यलोक की ऊँचाई भी शामिल है। ऊर्ध्वलोक में विमानवासी देवों और मुक्तजीवों के अवस्थान हैं।
542 :: जैनधर्म परिचय
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